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02.11.2025
प्यास का कारण
हर दिन शाम के चार बजते ही, उस बूढ़े आदमी के घर के बाहर एक डिलीवरी वैन रुकती थी।
हर दिन वही ऑर्डर — 14 बोतलें मिनरल वॉटर की।
और हर दिन, वो चुपचाप दरवाज़े से बोतलें अंदर ले जाता था, बिना किसी बात के।
शहर के बीचोंबीच, पुरानी कॉलोनी की वो जर्जर इमारत सबको अजीब लगती थी — पर उस 75 साल के बूढ़े व्यक्ति मोहनलाल जी से किसी ने कभी कुछ पूछा नहीं।
वो हमेशा अकेला रहता था, कोई आने-जाने वाला नहीं, न कोई रिश्तेदार, न कोई मेहमान।
पर एक दिन, डिलीवरी करने वाले लड़के राजेश को शक हुआ।
“बाबा अकेले रहते हैं… फिर रोज़ 14 बोतल पानी किसके लिए?”
उस दिन उसने झाँककर देखा — पर्दे हमेशा बंद, खिड़कियों पर अख़बार चिपके हुए, और भीतर से आती थी… धीमी-सी किसी के रोने जैसी आवाज़।
राजेश को डर भी लगा, पर उत्सुकता ज़्यादा थी।
उसने अपने सुपरवाइज़र से बात की, पर जब बात बनी नहीं, तो अगले दिन सीधा पुलिस को बुला लिया।
दोपहर में, तीन पुलिसवाले राजेश के साथ उस घर पहुँचे।
दरवाज़े पर घंटी बजाई — अंदर से कोई जवाब नहीं।
दूसरी बार बजाई, तो हल्की-सी आहट आई, जैसे कोई घसीटते हुए दरवाज़े की ओर आ रहा हो।
दरवाज़ा खुला, और सामने वही दुबला-पतला, सफ़ेद दाढ़ी वाला बूढ़ा आदमी खड़ा था।
उसकी आँखों में लालिमा थी — शायद नींद या रोने की थकान से।
“क्या हुआ बेटा?” उसने धीमे से पूछा।
पुलिस वाले बोले, “बाबा, शिकायत आई है कि आप रोज़ इतना पानी मँगवाते हैं। कोई परेशानी तो नहीं?”
मोहनलाल जी मुस्कराए — “आओ, अंदर आ जाओ।”
कमरे में दाख़िल होते ही सब ठिठक गए।
कमरा ठंडा था, दीवारों पर पुराने फोटो लगे थे — एक औरत और एक छोटी बच्ची के, मुस्कराते हुए।
फर्श पर बिखरी थीं कुछ खिलौने — जो इतने पुराने थे कि अब धूल से ढक चुके थे।
और फिर… सामने जो दृश्य था, उसने सबको हिला दिया।
कमरे के कोने में, एक बड़ी-सी लकड़ी की अलमारी खुली हुई थी, और उसके भीतर रखे थे — 13 शीशे के जार, जिनमें पानी भरा हुआ था…
हर जार के ऊपर लिखा था — “नीरा - दिन 1”, “नीरा - दिन 2”, “नीरा - दिन 3”… और आगे बढ़ते हुए “नीरा - दिन 13” तक।
राजेश ने काँपती आवाज़ में पूछा, “बाबा, ये क्या है?”
मोहनलाल जी धीरे से बोले —
“मेरी बेटी नीरा… तीस साल पहले 14 दिनों तक अस्पताल में थी। किडनी फेल हो गई थी… डॉक्टर ने कहा था उसे सिर्फ़ मिनरल वॉटर ही पीना चाहिए। लेकिन उन दिनों हमारे पास इतने पैसे नहीं थे… मैं रोज़ सिर्फ़ दो बोतल ही ला पाता था, और वो तड़प-तड़प कर… चौदहवें दिन चली गई।”
उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
“अब मैं हर दिन 14 बोतल लाता हूँ — उसके लिए। हर बोतल उसके एक दिन की प्यास के नाम पर।”
कमरे की दीवार पर नीरा की तस्वीर थी — उसी मुस्कान के साथ, जैसे किसी को माफ़ कर रही हो।
“जब तक मैं ज़िंदा हूँ, मैं उसकी प्यास नहीं लगने दूँगा,” वो बुदबुदाए।
राजेश के हाथ काँपने लगे।
पुलिसवाले कुछ बोल नहीं पाए। कमरे में सिर्फ़ घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी, और बूढ़े आदमी की टूटी हुई सांसें।
“बाबा, अब इतनी उम्र में क्यों खुद को तकलीफ़ दे रहे हैं?”
मोहनलाल जी ने धीरे से मुस्कराया —
“प्यास सिर्फ़ पानी की नहीं होती बेटा… कुछ प्यासें यादों की होती हैं। वो तो बस… मरने तक बुझती नहीं।”
उस दिन पुलिसवालों ने रिपोर्ट नहीं लिखी।
राजेश ने चुपचाप सब बोतलें अंदर रखीं, और जाते-जाते एक काम किया —
अगले दिन से उसने खुद उन बोतलों के साथ एक फूल की डाली रखनी शुरू कर दी…
हर बार उसी तस्वीर के सामने रखकर कहता,
“नीरा दीदी, आज का पानी आ गया।”
तीन महीने बाद, एक सुबह वो घर बंद मिला।
अंदर से सन्नाटा था, और मेज़ पर रखे एक नोट पर लिखा था —
“आज 14वीं बोतल भी खत्म हो गई। अब उसकी प्यास पूरी हो गई होगी।”
मोहनलाल जी का शरीर पास ही मिला — मुस्कराते हुए, नीरा की तस्वीर के सामने।
उनके बगल में रखी थी एक भरी हुई बोतल — शायद 15वीं, शायद अपने लिए।
उस दिन शहर भर में कोई भी आँख नम हुए बिना नहीं रही।
और राजेश, जो पहले बस डिलीवरी करता था, अब हर हफ्ते उस घर के सामने जाकर एक बोतल पानी रख आता है —
“नीरा के नाम पर।”
क्योंकि कुछ प्यासें…
पानी नहीं, यादें बुझाती हैं। 🕯️💧
ज़बरदस्त कहानी...
एक दिन एक दंपत्ति अपने 10 साल के बच्चे को लेकर डॉक्टर के पास आया। उन्होंने फ़ाइल डॉक्टर साहब की टेबल पर रखी। डॉक्टर ने फ़ाइल देखी और बच्चे की जाँच की। फिर डॉक्टर ने बच्चे से कहा, “बेटा, तुम थोड़ा बाहर बैठो, मैं तुम्हारे मम्मी-पापा से बात करता हूँ।”
माता-पिता बोले, “साहब, उसे सब पता है, इसलिए आप हमारी चर्चा उसी के सामने कर सकते हैं।”
डॉक्टर बोले, “मैंने पहली बार ऐसा परिवार देखा है जिनके चेहरे पर डर नहीं है।”
उन्होंने कहा, “साहब, शुरू में हम भी बहुत परेशान थे, लेकिन धीरे-धीरे भगवान पर भरोसे और विश्वास से हम तीनों का मनोबल मजबूत होता गया।”
डॉक्टर ने कहा, “देखिए, बच्चे के दिल की सर्जरी करनी पड़ेगी। मामला गंभीर है। 50-50 संभावना है। अगर सफल हुआ तो ज़िंदगी भर दिल की तकलीफ़ नहीं होगी, और अगर सफल न हुआ… तो आप समझ ही रहे हैं…”
माता-पिता बोले, “तो हमें क्या करना चाहिए?”
डॉक्टर ने कहा, “मेरे अनुसार मरते-मरते जीने से बेहतर है कि एक बार जोखिम उठा लिया जाए।”
वे डॉक्टर से सहमत हो गए।
जब उन्होंने डॉक्टर से शुल्क पूछा, तो डॉक्टर बोले, “आम तौर पर मैं एडवांस लेता हूँ, लेकिन आपके केस में ऑपरेशन के बाद बात करेंगे।” और उन्होंने तारीख दे दी।
ऑपरेशन के दिन बच्चा और माता-पिता समय पर पहुँचे। किसी के चेहरे पर डर नहीं था। वे बहुत शांत थे। यह केस डॉक्टर के जीवन का एक उदाहरण बन गया।
ऑपरेशन थिएटर में बच्चे को टेबल पर लिटाया गया। एनेस्थीसिया देने से पहले डॉक्टर ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए प्यार से पूछा,
“बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?”
बच्चे ने मुस्कुराकर कहा, “आनंद।”
डॉक्टर ने मज़ाक में कहा, “बेटा, तुम्हारे नाम की तरह ही तुम हमेशा आनंद में रहो। ऑपरेशन शुरू करने से पहले कुछ कहना है?”
बच्चा बोला, “साहब, दिल क्या होता है?”
डॉक्टर बोले, “बेटा, दिल यानी हृदय, जिसकी सर्जरी आज हम करेंगे।”
बच्चा बोला, “साहब, मम्मी-पापा हमेशा कहते हैं कि हर इंसान के दिल में राम रहते हैं।
तो जब आप मेरा दिल खोलें, तो ज़रा देखना कि मेरे अंदर बैठे राम कैसे हैं, फिर मुझे बताना कि वे कैसे दिखते हैं।”
डॉक्टर की आँखें भर आईं।
डॉक्टर ने अपने स्टाफ को पूरा केस पहले ही समझा दिया था, इसलिए सबकी आँखें नम हो गईं।
डॉक्टर बोले, “हज़ारों ऑपरेशन मैंने किए हैं, लेकिन पता नहीं क्यों, इस बच्चे का ऑपरेशन करते हुए मेरा मन और हाथ काँप रहे हैं।”
उन्होंने आँखें बंद कीं और भगवान से प्रार्थना की—
“अब तक मैंने हर ऑपरेशन को पेशे की तरह किया है,
पर यह ऑपरेशन श्रद्धा और विश्वास पर आधारित है।
मैं तो बस दिल की सर्जरी करता हूँ,
पर तू ही उसका सर्जन है।
मेरे इस प्रयास को सफल बना।”
कहकर उन्होंने ऑपरेशन शुरू किया।
ऑपरेशन आगे बढ़ रहा था, सफलता की पूरी संभावना थी,
लेकिन अचानक बच्चे का ब्लड प्रेशर गिरने लगा, शरीर ठंडा पड़ने लगा, और अंत में… सब शांत हो गया।
डॉक्टर की आँखों में आँसू आ गए —
“हे भगवान! तू जीत गया, मैं हार गया…”
कहकर उन्होंने थिएटर की सारी लाइटें ऑन कीं और हाथ धोने लगे।
तभी अचानक उन्हें बच्चे के शब्द याद आए —
“जब मेरा दिल खोलो तो देखना, राम कैसे हैं…”
डॉक्टर तुरंत बच्चे के दिल की ओर देखे और ज़ोर से बोले —
“क्या तुम्हें राम दिख रहे हैं?”
इतना कहते ही एक अद्भुत चेतना बच्चे के दिल में लौट आई,
दिल फिर से धड़कने लगा!
पूरा स्टाफ खुशी से चिल्ला उठा —
“जय श्री राम!”
ऑपरेशन पूरा हुआ और बच्चा बच गया।
डॉक्टर ने फीस नहीं ली और कहा —
“हज़ारों ऑपरेशन किए,
पर कभी यह नहीं सोचा कि राम कहाँ हैं?
इस बच्चे ने आज मुझे दिखा दिया कि राम हमारे दिल में रहते हैं।”
जब हम अपनी बुद्धि के दरवाज़े बंद करते हैं, तब भगवान अपने दरवाज़े खोलता है।
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यह लेख सभी के काम का है — कृपया बिना कोई बदलाव किए सभी को शेयर करें।
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
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जटायुऔर भीष्म पितामह
जब रावण ने जटायु के दोनों पंख काट डाले... तो काल आया और जैसे ही काल आया ... तो गीधराज जटायु ने मौत को ललकार कहा, -- "खबरदार ! ऐ मृत्यु ! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना... मैं मृत्यु को स्वीकार तो करूँगा... लेकिन तू मुझे तब तक नहीं छू सकता... जब तक मैं सीता जी की सुधि प्रभु "श्रीराम" को नहीं सुना देता...!
मौत उन्हें छू नहीं पा रही है... काँप रही है खड़ी हो कर... मौत तब तक खड़ी रही, काँपती रही... यही इच्छा मृत्यु का वरदान जटायु को मिला।
किन्तु महाभारत के भीष्म पितामह छह महीने तक बाणों की शय्या पर लेट करके मौत का इंतजार करते रहे... आँखों में आँसू हैं ... रो रहे हैं... भगवान मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं...!
*कितना अलौकिक है यह दृश्य ... रामायण मे जटायु भगवान की गोद रूपी शय्या पर लेटे हैं... प्रभु "श्रीराम" रो रहे हैं और जटायु हँस रहे हैं... वहाँ महाभारत में भीष्म पितामह रो रहे हैं और भगवान "श्रीकृष्ण" हँस रहे हैं... भिन्नता प्रतीत हो रही है कि नहीं... ? अंत समय में जटायु को प्रभु "श्रीराम" की गोद की शय्या मिली... लेकिन भीषण पितामह को मरते समय बाण की शय्या मिली....!*
जटायु अपने कर्म के बल पर अंत समय में भगवान की गोद रूपी शय्या में प्राण त्याग रहा है.... प्रभु "श्रीराम" की शरण में..... और बाणों पर लेटे लेटे भीष्म पितामह रो रहे हैं.... ऐसा अंतर क्यों?...
ऐसा अंतर इसलिए है कि भरे दरबार में भीष्म पितामह ने द्रौपदी की इज्जत को लुटते हुए देखा था... विरोध नहीं कर पाये थे ....! दुःशासन को ललकार देते... दुर्योधन को ललकार देते... लेकिन द्रौपदी रोती रही... बिलखती रही... चीखती रही... चिल्लाती रही... लेकिन भीष्म पितामह सिर झुकाये बैठे रहे... नारी की रक्षा नहीं कर पाये...!
उसका परिणाम यह निकला कि इच्छा मृत्यु का वरदान पाने पर भी बाणों की शय्या मिली और .... जटायु ने नारी का सम्मान किया... अपने प्राणों की आहुति दे दी... तो मरते समय भगवान "श्रीराम" की गोद की शय्या मिली...!
*जो दूसरों के साथ गलत होते देखकर भी आंखें मूंद लेते हैं ... उनकी गति भीष्म जैसी होती है ... जो अपना परिणाम जानते हुए भी... औरों के लिए संघर्ष करते है ... उसका माहात्म्य जटायु जैसा कीर्तिवान होता है*
*सप्रेम ...*
*नागी ज्वैलर पटेल नगर*
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धोबी का गधा
एक पुरानी कहानी है कि एक धोबी के पास एक गधा था जिसे वो कपड़े लादकर लाने ले जाने के लिए इस्तेमाल करता था। एक बार धोबी कपड़े धोने के लिए नदी किनारे आया। गधे की पीठ से कपड़े उतारते वक़्त उसे याद आया कि जिस रस्सी से वो गधे को पेड़ से बांध देता था, वो आज उस रस्सी को लाना भूल गया है। धोबी बड़ी चिंता में पड़ गया। वो इस चिंता में घुला ही जा रहा था कि क्या अब फिर से उसे इतनी दूर जाकर रस्सी लानी होगी क्योंकि नहीं तो मेरे कपड़े धोने जाते ही ये गधा तो कहीं रपक (निकल) लेगा।
वो ये सब सोच ही रहा था कि उधर से एक आदमी गुज़रा जो काफ़ी पढ़ा-लिखा और समझदार दिखता था। धोबी ने अपनी दास्तां उस आदमी से कह डाली और उससे किसी सलाह की आशा करने लगा। उस आदमी ने धोबी की पूरी बात इत्मीनान से सुनी और उससे कहा कि रस्सी लाने की कोई ज़रूरत नहीं है बस जब रस्सी होने पर तुम जिस प्रकार अपने गधे को बांधते आए हो ठीक उसी प्रकार का अभिनय करो। काल्पनिक रस्सी से उसे बांध दो। धोबी ने ठीक वैसा ही किया और बिल्कुल वैसे ही अपने गधे को थपथपाया जैसे वो रस्सी मजबूती से बांधने के बाद थपथपाया करता था।
धोबी कपड़े धोता जाता और बीच-बीच में दूर बंधे अपने गधे को देखकर आश्चर्यचकित होता जाता कि ये काल्पनिक रस्सी तो ख़ूब काम कर रही है। कई बार अनायास उसके मुंह से ठहाके भी निकल जाते।
सारे कपड़े धोने के बाद उसने वो कपड़े गधे पर लाद दिए और फिर उसने गधे को ठहाके लगाते हुए कुछ यूं हांका कि 'तू तो सच में गधा है जो रस्सी थी ही नहीं उससे बंधा पड़ा रहा' लेकिन उसके ठहाके तुरंत रुक गए जब गधा आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं हुआ। धोबी के बहुत हांकने के बाद भी गधा एक पैर भी आगे बढ़ाने के लिए तैयार नहीं था। धोबी घबरा गया, घबराकर उसने इधर-उधर देखा और पाया कि पेड़ की छांव में बैठकर वही समझदार और काफ़ी पढ़ा-लिखा आदमी मुस्कुरा रहा है।
वो आदमी भी ये सब तमाशा देखने के लिये बैठ गया था हालांकि वो पढ़ा-लिखा था लेकिन अक्सर वो कहीं भी तमाशे देखने रुक जाया करता था। उस आदमी ने कहा कि तुम शायद भूल गए हो कि तुम्हारा गधा बंधा है, उसे ठीक उसी प्रकार खोलो जिस प्रकार रोज़ खोलते आए हो। धोबी एक बार फिर से आश्चर्यचकित हुआ और उसने ठीक उसी प्रकार अपने गधे को खोला जिस प्रकार वो रोज़ उसकी रस्सी खोला करता था और फिर से उसे थपथपाया करता था। ऐसा करते ही गधा अपने रास्ते चल दिया।
यहां गधे की जगह हम अपने आप को रखकर देख सकते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि हम भी तमाम तरह के काल्पनिक पाशों (बंधनों) में बंधे हो और हम ये बात जानते ही न हों।
मनमोहन गुप्ता एडवोकेट
Manmohan Gupta ✍🏻
23.10.2025
लकड़हारा
एक बार लकड़ी काटने में माहिर एक आदमी लकड़ी के बड़े व्यापारी के यहाँ काम की तलाश में गया। उसे लकड़ी काटने की नौकरी मिल गयी।
तनख्वाह तो अच्छी थी लेकिन काम भी उसी तरह कठिन था। इस वजह से उसने खूब मेहनत से काम करने का निश्चय किया। उसके बॉस ने उसे एक कुल्हाड़ी दिया और कार्यस्थल भी दिखा दिया। पहले ही दिन लकड़हारे ने 18 पेड़ काट दिया।उसके बॉस ने उसे शाबाशी दी और कहा कि,"ऐसे ही मन लगाकर काम करो।"बॉस के प्रोत्साहन से प्रेरित होकर उसने अगले दिन ज़्यादा मेहनत किया लेकिन सिर्फ 15 पेड़ ला पायातीसरे दिन उसने और ज़ोर लगाया लेकिन वह सिर्फ 10 ही पेड़ ला पाया।
दिन प्रतिदिन उसके द्वारा लाये पेड़ों की संख्या कम होती जा रही थी।"लग रहा है कि मैं अपनी ताक़त खोता जा रहा हूँ।" लकड़हारे ने सोचा।
वह अपने बॉस के पास गया और माफ़ी मांगते हुए बोला,"मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या हो रहा है।"
बॉस ने पूछा,"अंतिम बार अपनी कुल्हाड़ी को तुमने धार कब दिया था?"
"धार? मेरे पास समय कहाँ है धार लगाने का? मैं तो पेड़ काटने में बहुत व्यस्त रहता हूँ......"
विचार:
हमारी ज़िन्दगी भी कुछ इसी तरह है। हम कभी-कभी इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अपनी "कुल्हाड़ी" में धार लगाने का समय भी नहीं निकाल पाते।
आज के समय में, ऐसा लगता है कि हर कोई पहले से ज़्यादा व्यस्त हो गया है लेकिन पहले जितना खुश नहीं है।
ऐसा क्यों हो रहा है?
शायद इसलिए कि हम स्वयं को "धारदार" रखना भूल गए हैं?
कठिन परिश्रम करने में और गतिविधियाँ करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हमें इतना व्यस्त नहीं हो जाना चाहिए कि ज़िन्दगी की अत्यंत अहम् चीज़ों की अनदेखी करने लगें।
जैसे:-
अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी अपने परिवार को और समय देना अध्ययन आदि के लिए समय निकालना हम सबको समय देना चाहिए .आराम करने के लिए चिंतन और ध्यान(meditation) के लिए सीखने और विकास करने के लिए।
जुगत करनी पड़ेगी😊
एक व्यक्ति की कार गहरी दलदल में फंस गयी । इत्तफाक से उधर से घोड़े के साथ एक देहाती गुजरा ।
"क्यों, भई ?" - उसने पूछा - "तेरा घोड़ा मेरी कार को इस दलदल भरी खाई से बाहर खींच सकता है ?"
"खींच सकता है" - देहाती बोला - "लेकिन जुगत करनी पड़ेगी ।"
"क्या ?"
"अभी देखो ।" - उसने घोड़े को कार के आगे जोता और
बोला "खींच, बांके, खींच ।"
कार अपनी जगह से जरा भी न हिली ।
फिर देहाती बोला - "खींच, तूफान, खींच । "
कार न हिली ।
"खींच, हीरा, खींच ।"
कार न हिली ।
"खींच, बादल, खींच ।"
कार बड़े आराम से खाई में से बाहर खिंची चली गयी।
"कमाल है !" - कार वाल मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला "घोड़े का नाम बादल है ?"
"हां ।"
"तो तुम और नामों से क्यों पुकार रहे थे ?"
"क्योंकि ये अन्धा है । अगर लगता कि वो अकेला ही खींच रहा था तो ये कोशिश भी न करता ।"
सोचकर सोचिए...... साथ और तारीफ में ताकत होती है !
पकौड़ियां
एक दुकानदार के हाथ की पकौड़िया बहुत मशहूर थी।
हमेशा भीड़ लगी रहती, रूपया पैसा इज्जत रुतबा सब था। बहुत से लोगो ने उसके अगल बगल दुकान खोलने की कोशिश की, पर कोई कामयाब नही हुआ।
उन दुकानदारों ने फेल होने पर पता करने की कोशिश भी की कि वो दुकानदार कितना बेसन डालता है, कितना प्याज डालता है, नमक के अलावा तो कोई और मसाला नही डाल रहा है, कहीं तेल में तो कोई खासियत नहीं है, या फिर बेसन पिसवाते टाइम ही कुछ न कुछ मिला देता है।
थकहार कर जब किसी को कुछ मालूम नही हुआ तो रटा रटाया जुमला मार्केट में दौड़ा दिया कि साला अफीम मिलाता है। एक ऐसे ही उत्सुक इंसान ने, जो कि दुकानदार नहीं था; एक दिन फुर्सत में बेसन फेंटने के दौरान उसको पकड़ कर पूछा कि दोस्त हमें तो बताओ कि राज क्या है?
दुकानदार ने जवाब दिया कि "यार कोई राज नहीं है, मैं तो सबको बताता भी हू पर कोई मानता ही नहीं"
उत्सुक इंसान ने कहा कि "अगर सबको बताते हो तो हमको भी बता ही दो"
तो उसने जो बताया वो यूं था कि वो दुकानदार कभी कुछ नाप कर नहीं डालता था। उसके हिसाब से, उसने मुट्ठी से प्याज उठाया, मुट्ठी से बेसन और जितनी मिर्ची जितना नमक समझ आया डाल दिया।
उत्सुक आदमी ने ये सुनकर कहा कि "यार इतना आसान तो नही होगा, कुछ तो होगा जो अलग करते हो तुम"
दुकानदार बोला "हाँ, एक चीज है। मैं हमेशा तेल देखता हूँ।
उत्सुक इंसान और उलझन में आकर पूछ बैठा" तेल देखता हूं मतलब?
दुकानदार बोला "खेल बेसन के घोल का है ही नही। असल में मैं कढ़ाही में तेल डालकर उसे गर्म होने देता हूँ। और जब मुझे लगता है कि अब पकौड़ी डाली जानी चाहिए तो फिर डालता हूँ और जब मुझे लगता है कि अब निकालने का वक्त है, मैं पकौड़ी निकाल लेता हूँ। यही चीज दूसरों से कहता हूँ पर उनके अंदर इतना सब्र ही नही है कि वो बैठकर तेल देखते रहें। इसलिए वो जबरदस्ती साबित करना चाहते है कि सारा टेस्ट घोल से आता है, जबकि मै सबको बताकर थक गया हू कि बस तेल देखते रहो। कोई मीटर नही है कि इतने मिनट इतने सेकंड के बाद ही पकौड़ी तलनी है या निकालनी है, सबकी भट्टी अलग होती है, सबका तेल अलग होता है, सबका घोल अलग होता है, और सबकी ऑंच भी। इसलिए तुम्हे ढूंढना होगा कि तुम्हारा सही समय क्या है, तुम्हारी आँच क्या है, तुम्हारा तेल तुम्हारी कढ़ाही क्या है?
ये चीज सिर्फ तुम जानते हो, सिर्फ तुम ही तय करोगे। न तो कोई तुम्हे बता सकता है, ना कोई तुम्हे रटा सकता है, दूसरो की करारी पकौड़ियो को देखकर उनकी रेसिपी ढूंढने जानने और कॉपी करने में वक्त बर्बाद मत करो"
एक सबक याद रखना, तुम ज़िन्दगी में क्या अच्छा कर रहे हो या क्या बुरा कर रहे ये कभी मायने नही रखता। मायने ये रखता है कि कब कर रहे हो। सारा खेल ही टाइमिंग का है।
29.09.2025
हनुमान जी का मैनेजमेंट
बजरंगबली हनुमान जी जब सीता माता की खोज में निकले तो रास्ते में देवताओं ने सुरसा को राक्षसी बनाकर उनके समक्ष खड़ा कर दिया. अब हनुमान जी तो इतने बलशाली थे कि अगर चाहते तो अपनी गदा के एक प्रहार से ही सुरसा का सर फोड़ सकते थे.
परंतु क्या उन्होंने ऐसा किया? "नहीं।"
प्रभु जिस लक्ष्य को साधने निकले थे उस लक्ष्य की राह में सुरसा एक गतिअवरोधक से अधिक कुछ ना थी। प्रभु ने अपना रूप लघु कर लिया और सुरसा के मुंह की परिक्रमा कर बाहर आ गए।
लक्ष्य विराट हो, विशाल हो, तो छोटे मोटे अवरोधों पर ऊर्जा का व्यय अनुचित है। प्रभु ने शस्त्र तब उठाया जब आवश्यक था, और जब उठाया तो एक विराट लक्ष्य को साधने हेतु उठाया- पर्वत उठाया तो एक विराट लक्ष्य को साधने हेतु उठाया।
सुरसा के मुख में लघु दिख रहे हनुमान जी, मैनेजमेंट की कितनी उच्च स्तर की शिक्षा दी गए हैं, यह हम सबको समझने की आवश्यकता है. जीवन रूपी हाइवे पर आज भी गति अवरोधक आते ही रहते हैं। जब हम प्रगति की बात करते हैं, बड़ा लक्ष्य साधने की बात करते हैं, तो प्रगति में आ रहे छोटे मोटे अवरोधों से विचलित नहीं होना चाहिए. सुरसा के मुख में लघु दिख रहे हनुमान जी की विराट छवि जीवन का वास्तविक दर्शन है।
हम सब के शीश पर प्रभु का हाथ बना रहे। हमारे मन मस्तिष्क में उनका वास रहे। हम सभी पर प्रभु का आशीर्वाद बना रहे।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डर ना।।
भोग
एक लड़के ने पाठ के बीच में अपने गुरु जी से यह प्रश्न किया कि *क्या भगवान हमारे द्वारा चढ़ाया गया भोग खाते हैं यदि खाते हैं, तो वह वस्तु समाप्त क्यों नहीं होती.......और यदि नहीं खाते हैं, तो भोग लगाने का क्या लाभ......*
गुरुजी ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया।
वे पूर्ववत् पाठ पढ़ाते रहे और उस दिन उन्होंने पाठ के अन्त में एक श्लोक पढ़ाया :--
*पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।*
*पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥*
पाठ के बाद गुरु ने शिष्यों से कहा कि वे श्लोक याद कर लें।एक घंटे बाद गुरु ने प्रश्न करने वाले शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक याद हुआ कि नहीं....
उस शिष्य ने पूरा श्लोक गुरु को सुना दिया।
फिर भी गुरु ने सिर *नहीं* में हिलाया, तो शिष्य ने कहा कि वे चाहें, तो पुस्तक देख लें ; श्लोक बिल्कुल सही याद है।
गुरु ने पुस्तक देखते हुए कहा *श्लोक तो पुस्तक में ही है तो तुम्हारे दिमाग में कैसे चला गया? शिष्य कुछ भी उत्तर नहीं दे पाया*।
तब गुरु ने कहा *पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है तुमने जब श्लोक पढ़ा, तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे दिमाग में प्रवेश कर गया*।
*उसी सूक्ष्म रूप में वह तुम्हारे मस्तिष्क में भी रहता है और जब तुमने इसको पढ़कर कंठस्थ कर लिया, तब भी पुस्तक के श्लोक में कमी नहीं आई*।
*इसी प्रकार पूरे विश्व में व्याप्त परमात्मा हमारे द्वारा चढ़ाए गए निवेदन को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप की वस्तु में कोई कमी नहीं होती उसी को हम प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं*।
शिष्य को उसके प्रश्न का उत्तर मिल गया।
यही प्राबोध है, यही सुमरती है जिसके लिये यह मानव देह प्राप्त हुई है।
13.09.2025
तूफान तो आना है, आकर चले जाना है
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कल कोर्ट में वकील साहब के चैंबर में बैठा था। खामोशी थी। अचानक मैंने देखा कि टेबल पर एक छोटी-सी चींटी चल रही थी।
संजय सिन्हा और चींटी की कहानी?
हां, कल मैंने उस नन्ही सी चींटी को बहुत गौर से देखा। वो टेबल के किनारे-किनारे अपनी दूरी तय कर रही थी। पता नहीं किधर से आई थी, किधर जाना था। लेकिन वो सीधी लकीर में चलती चली जा रही थी।
मैं चुपचाप देख रहा था। एक बार मुझे लगा कि उस हाथ से हटा दूं। फिर लगा कि हाथ क्यों लगाऊं। तो मैंने सोचा कि एक फूंक मारूंगा वो उड़ जाएगी या रास्ते से मुड़ जाएगी। उड़ जाएगी तो पता नहीं किधर चली जाएगी और मुड़ जाएगी तो अपने पुराने राह पर चलती हुई चली जाएगी।
एक चींटी ही तो थी। हाथी नहीं था कि कोई परेशान होता। पर मैं एक टक से चलती हुई चींटी को देख रहा था। सोच रहा था कि चींटियां आती कहां से हैं? जाती कहां है? वो तो एक ही चींटी थी। अकेली।
वो कोर्ट में क्या करने आई होगी? वैसे चींटियों का भरोसा नहीं होता। वो कहीं आ सकती हैं, जा सकती हैं। जिन दिनों हम अमेरिका में थे, मेरी सास और पत्नी की छोटी बहन अमेरिका घूमने आई थीं। राम जाने कहां से मिठाई के साथ वो चींटी साथ ले आई थीं।
हज़ारों किलोमीटर की यात्रा उन चींटियों ने फ्री में किया और हमारे घर तक पहुंच गईं थीं। उनके आंतक का पता चला, जब सास और साली भारत लौट गई थीं। मेरे फ्लैट में इतनी चींटियां हो गई थीं कि फाइनली मुझे पेस्ट कंट्रोल कराना प़ड़ा था। खैर, आज कहानी कोर्ट रूम में चलती हुई चींटी की है। उस चींटी से मिले सबक की है।
हुआ ये कि जब चींटी चलते हुए मेरी दिशा में बहुत करीब आ गई तो मैंने उसे फूंक कर भगाने की कोशिश की। लेकिन हुआ क्या?
चींटी ने मेरी फूंक की हवा के आगे कर खुद को रोक लिया। एकदम टेबल से चिपक गई। वो चुपचाप जहां थी, वहीं रुक गई। न उड़ी, न मुड़ी। बस चुपचाप रूकी रही। कुछ सेकेंड बाद वो फिर चल पड़ी, जैसे कुछ हुआ ही न हो। मैंने फिर फूंक मार कर उसे उड़ाना चाहा। लेकिन जब मैं फूंक मारता, वो रुक जाती। न हिलती-न डुलती।
मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा। मेरी फूंक उसके लिए आंधी जैसी रही होगी। लेकिन वो फूंक मारते ही रुक जाती थी। फिर चलने लगती थी।
संजय सिन्हा कहीं भी संदेश प्राप्त कर सकते हैं। कल चींटी से संदेश मिला। जीवन में जब तूफान आए तो चुप होकर बैठ जाइए। कोई हलचल नहीं कीजिए। रुक जाइए। तूफान (फूंक) के रुकने का इंतज़ार कीजिए।
मत घबराइए।
चींटी अगर घबराती तो उड़ जाती। उड़ कर पता नहीं कहां चली जाई। लेकिन कल एक नन्हीं सी चींटी ने संदेश दिया। अपनी जगह पर डटे रहो। अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रहो। किसी के रोकने से, आंधी या तूफान आने से विचलित मत हो। जीवन में तूफान आएंगे। जीवन में मिटाने वाले आएंगे। पर डरना नहीं है। घबराना नहीं है। आराम से डटे रहना है। देखना है, समय को धैर्य के साथ।
कल मैं थक गया था, चींटी नहीं। वो चलती रही। फिर वो मेज के दूसरे सिरे से होते हुए आगे बढ़ती चली गई। मुझे नहीं पता उसे कहां जाना था, लेकिन जहां जाना था, वो चली गई। मैंने उसे रोकने की कोशिश की। उसे उड़ा देने की कोशिश की। लेकिन उसकी सहनशीलता के आगे मैं थक गया। वो जीत गई। संजय सिन्हा हार गए।
आप भी मत रुकिए। मत थमिए। मुसीबत आए, दुख आए तो सामना कीजिए। एक छोटी-सी चींटी की तरह।
#SanjaySinha
#ssfbFamily
31.08.2025
1977 में नासा के वैज्ञानिकों ने एक स्पेस एक्सप्लोरेशन मिशन भेजा वॉयजर यान. दो यान अंतरिक्ष में भेजे गए जिनका उद्देश्य था शनि और बृहस्पति ग्रहों की स्टडी करना और उनका डेटा धरती पर भेज देना. इसके पश्चात इनका आरंभिक मिशन समाप्त था, इन्हें अंतरिक्ष के अंधेरे में कहीं भी गुम हो जाना था.
दोनों ही यानों ने अपना मिशन सफलता पूर्वण तीन वर्ष में पूर्ण कर दिया. पर यह थके नहीं, निकल पड़े अंतरिक्ष यात्रा पर. 1990 तक voyager 1 इतनी दूरी पर था कि वहाँ से सूर्य और उसकी परिक्रमा करते सारे ग्रहों की फ़ोटो लेने वाला पहला यान बन गया. पर मंजिल अभी बाक़ी थी. 1998 में किसी भी मानव निर्मित यान द्वारा धरती से सबसे दूर जाने का रिकॉर्ड भी voyager 1 का हो गया. यह चलते गए और एक दिन इंटरस्टेलर में पहुँच गए. जहाँ अपने सूर्य का प्रकाश भी न पहुँचता हो वहाँ तक पहुँच गए. और इनकी ये यात्रा अभी थमी नहीं है. यह चल रहे हैं लगातार रेडियो सिग्नल भेज रहे हैं. यद्यपि अब यह सिग्नल बहुत कमजोर हैं, पर नासा ने इन्हें रिसीव करने के लिए दुनिया के हर कोने पर रिसीवर लगाए हैं, कल ही सुदूर अंतरिक्ष से वॉयेजर ने एक गाना भी प्रेषित किया. जल्द ही यह धरती से लगभग एक प्रकाश दिन की दूरी पर होंगे अर्थात् यहाँ से वहाँ तक प्रकाश पहुँचने में एक दिन लगेगा. यह दूरी इतनी ज़्यादा है इससे कल्पना कर सकते हैं कि सूर्य से धरती तक प्रकाश आठ मिनट में आ जाता है.
जब यह यान गए थे तब आधुनिक माइक्रोप्रोसेसर तक न बने थे. बेसिक ट्रांजिस्टर्स का उपयोग कर कंट्रोल पैनल बनाया गया था. आपके फ़ोन की मेमोरी इस समय सौ जीबी प्लस होती है आपको परेशानी होती है मेमोरी कम है. यह बस 65-70 K अर्थात आपके फ़ोन की मेमोरी से लाख गुना कम मेमोरी में अंतरिक्ष टहल रहे हैं इतनी दूर. सिग्नल भेजने के लिए बस एक छतरी वाला ट्रांसमीटर है लगे हुवे हैं लगातार सिग्नल अभी भेज रहे हैं.
प्रायः हम संसाधनों / टेक्नोलॉजी के अभाव का रोना रोते हैं. हमारे हाथ में जो मोबाइल है उससे कई गुना कम पॉवर / मेमोरी के साथ यह यान 47 वर्षों से अंतरिक्ष में टहल रहा है, जहाँ है वहाँ तक पहुँचने की कल्पना भी आज के समय भी असंभव लगती है. तो बस बात यही है, आपके पास जो भी जैसे भी संसाधन हैं उन्हें लेकर लगन से आँख बंद कर लग जाइए आप दुनिया में 99.9999% लोगों से ज्यादा उन्नति करेंगे.
-Copied from facebook
21.08.2025
परमात्मा की कृपा
सन्तों की एक सभा चल रही थी। किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहाँ रखवा दिया ताकि सन्त जनों को जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें।सन्तों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था। उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे। वह सोचने लगा–‘अहा ! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है।एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। सन्तों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा। ऐसी किस्मत किसी-किसी की ही होती है।’घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा–‘बन्धु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा सिर्फ मिट्टी का ढेर था। किसी काम का नहीं था। कभी ऐसा नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया,उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और मुझे बोरी में भर कर गधे पर लादकर अपने घर ले गया।वहाँ ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया। बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आँवे के आग में झोंक दिया जलने को।इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में बेचने के लिए लाया गया। वहाँ भी लोग मुझे ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं ? ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या, बस 20 से 30 रुपये।मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था। रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो। मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है।लेकिन ईश्वर की योजना कुछ और ही थी, किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी प्रभु ही कृपा थी।
उसका मुझे वह गूंथना भी प्रभु की कृपा थी। मुझे आग में जलाना भी प्रभु की मर्जी थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भी प्रभु ही इच्छा थी। अब मालूम पड़ा कि मुझ पर सब परमात्मा की कृपा ही थी।’बुरी परिस्थितियाँ हमें इतनी विचलित कर देती हैं कि हम परमात्मा के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं और खुद को कोसने लगते हैं, क्यों हम सबमें शक्ति नहीं होती उनकी लीला समझने की।कई बार हमारे साथ भी ऐसा ही होता है हम खुद को कोसने के साथ परमात्मा पर अंगुली उठा कर कहते हैं कि उसने मेरे साथ ही ऐसा क्यों किया, क्या मैं इतना बुरा हूँ ?भगवान ने सारे दुःख दर्द मुझे ही क्यों दिए। लेकिन सच तो ये है कि भगवान ने उन तमाम पत्थरों की भीड़ में से तराशने के लिए एक आपको चुना है। अब तराशने में तो थोड़ी तकलीफ तो झेलनी ही पड़ती है।
जय जय श्री राधे🌹🙏🚩
प्रभू का पत्र,
मेरे प्रिय...
सुबह तुम जैसे ही सो कर उठे, मैं तुम्हारे बिस्तर के पास ही खड़ा था। मुझे लगा कि तुम मुझसे कुछ बात करोगे। तुम कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिये मुझे धन्यवाद कहोगे। लेकिन तुम फटाफट चाय पी कर तैयार होने चले गए और मेरी तरफ देखा भी नहीं!!!
फिर मैंने सोचा कि तुम नहा के मुझे याद करोगे। पर तुम इस उधेड़बुन में लग गये कि तुम्हे आज कौन से कपड़े पहनने है!!!
फिर जब तुम जल्दी से नाश्ता कर रहे थे और अपने ऑफिस के कागज़ इक्कठे करने के लिये घर में इधर से उधर दौड़ रहे थे...तो भी मुझे लगा कि शायद अब तुम्हे मेरा ध्यान आयेगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
फिर जब तुमने आफिस जाने के लिए ट्रेन पकड़ी तो मैं समझा कि इस खाली समय का उपयोग तुम मुझसे बातचीत करने में करोगे पर तुमने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और फिर खेलने लग गए अपने मोबाइल में और मैं खड़ा का खड़ा ही रह गया।
मैं तुम्हें बताना चाहता था कि दिन का कुछ हिस्सा मेरे साथ बिता कर तो देखो,तुम्हारे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन तुमनें मुझसे बात ही नहीं की...
एक मौका ऐसा भी आया जब तुम बिलकुल खाली थे और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यूं ही बैठे रहे,लेकिन तब भी तुम्हें मेरा ध्यान नहीं आया।
दोपहर के खाने के वक्त जब तुम इधर-उधर देख रहे थे,तो भी मुझे लगा कि खाना खाने से पहले तुम एक पल के लिये मेरे बारे में सोचोंगे,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
दिन का अब भी काफी समय बचा था। मुझे लगा कि शायद इस बचे समय में हमारी बात हो जायेगी,लेकिन घर पहुँचने के बाद तुम रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गये। जब वे काम निबट गये तो तुमनें टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखते रहे। देर रात थककर तुम बिस्तर पर आ लेटे। तुमनें अपनी पत्नी, बच्चों को शुभरात्रि कहा और चुपचाप चादर ओढ़कर सो गये।
मेरा बड़ा मन था कि मैं भी तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा बनूं...
तुम्हारे साथ कुछ वक्त बिताऊँ...
तुम्हारी कुछ सुनूं...
तुम्हे कुछ सुनाऊँ।
कुछ मार्गदर्शन करूँ तुम्हारा ताकि तुम्हें समझ आए कि तुम किसलिए इस धरती पर आए हो और किन कामों में उलझ गए हो, लेकिन तुम्हें समय ही नहीं मिला और मैं मन मार कर ही रह गया।
मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ। हर रोज़ मैं इस बात का इंतज़ार करता हूँ कि तुम मेरा ध्यान करोगे और अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए मेरा धन्यवाद करोगे।
पर तुम तब ही आते हो जब तुम्हें कुछ चाहिए होता है। तुम जल्दी में आते हो और अपनी माँगें मेरे आगे रख के चले जाते हो।और मजे की बात तो ये है कि इस प्रक्रिया में तुम मेरी तरफ देखते भी नहीं। ध्यान तुम्हारा उस समय भी लोगों की तरफ ही लगा रहता है,और मैं इंतज़ार करता ही रह जाता हूँ।
खैर कोई बात नहीं...हो सकता है कल तुम्हें मेरी याद आ जाये!!!
ऐसा मुझे विश्वास है और मुझे तुम में आस्था है। आखिरकार मेरा दूसरा नाम...आस्था और विश्वास ही तो है।
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तुम्हारा ईश्वर...👣
राधे राधे
07.08.2025
आनंद का झरना
बेल बजी तो द्वार खोला। द्वार पर शिवराम खड़ा था। शिवराम हमारी सोसायटी के लोगों की गाड़ियाँ, बाइक्स वगैरह धोने का काम करता था।
"साहब, जरा काम था।"
"तुम्हारी पगार बाकी है क्या, मेरी तरफ ? "
"नहीं साहब, वो तो कब की मिल गई। पेड़े देने आया था, बेटा दसवीं पास हो गया।"
"अरे वाह ! आओ अंदर आओ।"
मैंने उसे बैठने को कहा। उसने मना किया लेकिन फिर, मेरे आग्रह पर बैठा। मैं भी उसके सामने बैठा तो उसने पेड़े का पैकेट मेरे हाँथ पर रखा।
"कितने मार्क्स मिले बेटे को ?"
"बासठ प्रतिशत।"
"अरे वाह !" उसे खुश करने को मैं बोला।
आजकल तो ये हाल है कि, 90 प्रतिशत ना सुनो तो आदमी फेल हुआ जैसा मालूम होता है। लेकिन शिवराम बेहद खुश था।
"साहब, मैं बहुत खुश हूँ। मेरे खानदान में इतना पढ़ जाने वाला मेरा बेटा ही है।"
"अच्छा, इसीलिए पेड़े वगैरह !"
शिवराम को शायद मेरा ये बोलना अच्छा नहीं लगा। वो हलके से हँसा और बोला, "साहब, अगर मेरी सामर्थ्य होती तो हर साल पेड़े बाँटता। मेरा बेटा बहुत होशियार नहीं है, ये मुझे मालूम है। लेकिन वो कभी फेल नहीं हुआ और हर बार वो 2-3 प्रतिशत नंबर बढ़ाकर पास हुआ, क्या ये ख़ुशी की बात नहीं ?"
"साहब, मेरा बेटा है, इसलिए नहीं बोल रहा, लेकिन बिना सुख सुविधाओं के वो पढ़ा, अगर वो सिर्फ पास भी हो जाता, तब भी मैं पेड़े बाँटता।"
मुझे खामोश देख शिवराम बोला, "माफ करना साहब, अगर कुछ गलत बोल दिया हो तो। मेरे बाबा कहा करते थे कि, आनंद अकेले ही मत हजम करो बल्कि, सब में बाँटो।
ये सिर्फ पेड़े नहीं हैं साहब - ये मेरा आनंद है !"
मेरा मन भर आया। मैं उठकर भीतरी कमरे में गया और एक सुन्दर पैकेट में कुछ रुपए रखे।
भीतर से ही मैंने आवाज लगाई, "शिवराम, बेटे का नाम क्या है ?"
"विशाल।" बाहर से आवाज आई।
मैंने पैकेट पर लिखा - प्रिय विशाल, हार्दिक अभिनंदन ! अपने पिता की तरह सदा, आनंदित रहो !
"शिवराम ये लो।"
"ये किसलिए साहब ? आपने मुझसे दो मिनिट बात की, उसी में सब कुछ मिल गया।"
" ये विशाल के लिए है ! इससे उसे उसकी पसंद की पुस्तक लेकर देना।"
शिवराम बिना कुछ बोले पैकेट को देखता रहा।
"चाय वगैरह कुछ लोगे ?"
" नहीं साहब, और शर्मिन्दा मत कीजिए। सिर्फ इस पैकेट पर क्या लिखा है, वो बता दीजिए, क्योंकि मुझे पढ़ना नहीं आता।"
"घर जाओ और पैकेट विशाल को दो, वो पढ़कर बताएगा तुम्हें।" मैंने हँसते हुए कहा।
मेरा आभार मानता शिवराम चला गया लेकिन उसका आनंदित चेहरा मेरी नजरों के सामने से हटता नहीं था।
आज बहुत दिनों बाद एक आनंदित और संतुष्ट व्यक्ति से मिला था।
आजकल ऐंसे लोग मिलते कहाँ हैं। किसी से जरा बोलने की कोशिश करो और विवाद शुरू। मुझे उन माता पिताओं के लटके हुए चेहरे याद आए जिनके बच्चों को 90-95 प्रतिशत अंक मिले थे। अपने बेटा/बेटी को कॉलेज में एडमीशन मिलने तक उनका आनंद गायब ही रहता था।
हम उन पर क्यूँ हँसें ? आखिर हम सब भी तो वैसे ही हैं - आनंद से रूठे !
सही मायनों में तो आनंद का झरना हमारे भीतर ही बहता है, चाहे जब डुपकी मारिए।
लेकिन हम लोग झरने के किनारे खड़े होकर, पानी के टैंकर की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
दूसरों से तुलना करते हुए
और पैसे,
और कपड़े,
और बड़ा घर,
और हाई पोजीशन,
और परसेंटेज...!
इस *और* के पीछे भागते भागते उस आनंद के झरने से कितनी दूर चले आए हम !!
अनुशासन
सब लोग अपनी मर्जी से सोना-जागना चाहते हैं ।
बच्चों का मन होता है वह ज्यादा टीवी देखें और गेम खेलें पत्नी सोचती है , काश उसे घर के कामों से छुट्टी मिल जाती । लेकिन परिवार को सुचारू तरीके से चलने के लिए हमें अनुशासन में रहना ही पड़ता है , ताकि जिंदगी सही तरीके से चलती रहे । समाज में कायदे-कानून इसीलिए बने हैं कि अनुशासन कायम रहे और सब कुछ सामान्य रूप से चलता रहे ।
दरअसल नियमों से आजादी का मतलब है , अपनी जिम्मेदारियों को नकारना । हमारे अंदर अनुशासित स्वतंत्रता , संस्कारों से आती है । मानवीय व्यवहारों में यह तीन स्तरों पर होती है । पहले स्तर पर ,हम अपने आसपास के माहौल के अनुरूप आजादी और जिम्मेदारी से , अपने मनोभाव व विचारों में ढलते हैं । दूसरे स्तर पर हम अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए , खुद अनुशासित तरीके से जीवन जीते हैं । जबकि तीसरे स्तर पर , अनुशासन प्यार-भरी दृढ़ता है । यह अच्छी कार्य-क्षमता के लिए , अपनी ऊर्जा और शक्ति को एकत्रित और क्रमबद्ध करने का भी तरीका है ।
सच तो यह है कि अनुशासन से आजादी कम नहीं होती । दूसरे हमें यह बहुत बड़ी गलतफहमी है कि आजादी का मतलब है कि जो मन में आए वह करते जायें ।
वास्तव में अनुशासन के बिना , कोई काम करना बहुत आसान नहीं हो सकता ,, नियमों को मानकर ही हम अपनी आजादी का सही आनंद उठा सकते हैं ।
25.07.2025
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत...
1950 के दशक में हावर्ड यूनिवर्सिटी के विख्यात साइंटिस्ट कर्ट रिचट्टर ने चूहों पर एक अजीबोगरीब शोध किया था।
कर्ड ने एक जार को पानी से भर दिया और उसमें एक जीवित चूहे को डाल दिया।
पानी से भरे जार में गिरते ही चूहा हड़बड़ाने लगा औऱ
जार से बाहर निकलने के लिए लगातार ज़ोर लगाने लगा।
चंद मिनट फड़फड़ाने के पश्चात चूहे ने जार से बाहर निकलने का अपना प्रयास छोड़ दिया और वह उस जार में डूबकर मर गया।
कर्ट ने फ़िर अपने शोध में थोड़ा सा बदलाव किया।
उन्होंने एक दूसरे चूहे को पानी से भरे जार में पुनः डाला। चूहा जार से बाहर आने के लिये ज़ोर लगाने लगा।
जिस समय चूहे ने ज़ोर लगाना बन्द कर दिया और वह डूबने को था......ठीक उसी समय कर्ड ने उस चूहे को मौत के मुंह से बाहर निकाल लिया।
कर्ड ने चूहे को उसी क्षण जार से बाहर निकाल लिया जब वह डूबने की कगार पर था।
चूहे को बाहर निकाल कर कर्ट ने उसे सहलाया ......कुछ समय तक उसे जार से दूर रखा और फिर एकदम से उसे पुनः जार में फेंक दिया।
पानी से भरे जार में दोबारा फेंके गये चूहे ने फिर जार से बाहर निकलने की अपनी जद्दोजेहद शुरू कर दी।
लेकिन पानी में पुनः फेंके जाने के पश्चात उस चूहे में कुछ ऐसे बदलाव देखने को मिले जिन्हें देख कर स्वयं कर्ट भी बहुत हैरान रह गये।
कर्ट सोच रहे थे कि चूहा बमुश्किल 15 - 20 मिनट तक संघर्ष करेगा और फिर उसकी शारीरिक क्षमता जवाब दे देगी और वह जार में डूब जायेगा।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
चूहा जार में तैरता रहा। अपनी जीवन बचाने के लिये लगातार सँघर्ष करता रहा।
60 घँटे .......
जी हाँ .....60 घँटे तक चूहा पानी के जार में अपने जीवन को बचाने के लिये सँघर्ष करता रहा।
कर्ट यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये।
जो चूहा महज़ 15 मिनट में परिस्थितियों के समक्ष हथियार डाल चुका था ........वही चूहा 60 घंटों तक कठिन परिस्थितियों से जूझ रहा था और हार मानने को तैयार नहीं था।
कर्ट ने अपने इस शोध को एक नाम दिया और वह नाम था......." The HOPE Experiment".....!
Hope........यानि आशा।
कर्ट ने शोध का निष्कर्ष बताते हुये कहा कि जब चूहे को पहली बार जार में फेंका गया .....तो वह डूबने की कगार पर पहुंच गया .....उसी समय उसे मौत के मुंह से बाहर निकाल लिया गया। उसे नवजीवन प्रदान किया गया।
उस समय चूहे के मन मस्तिष्क में "आशा" का संचार हो गया। उसे महसूस हुआ कि एक हाथ है जो विकटतम परिस्थिति से उसे निकाल सकता है।
जब पुनः उसे जार में फेंका गया तो चूहा 60 घँटे तक सँघर्ष करता रहा.......
वजह था वह हाथ...वजह थी वह आशा ...वजह थी वह उम्मीद!!!
इसलिए हमेशा........
उम्मीद बनाये रखिये, सँघर्षरत रहिये,
सांसे टूटने मत दीजिये, मन को हारने मत दीजिये
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
05.07.2025
भोग
एक लड़के ने पाठ के बीच में अपने गुरु जी से यह प्रश्न किया कि *क्या भगवान हमारे द्वारा चढ़ाया गया भोग खाते हैं यदि खाते हैं, तो वह वस्तु समाप्त क्यों नहीं होती.......और यदि नहीं खाते हैं, तो भोग लगाने का क्या लाभ......*
गुरुजी ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया।
वे पूर्ववत् पाठ पढ़ाते रहे और उस दिन उन्होंने पाठ के अन्त में एक श्लोक पढ़ाया :--
*पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।*
*पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥*
पाठ के बाद गुरु ने शिष्यों से कहा कि वे श्लोक याद कर लें।एक घंटे बाद गुरु ने प्रश्न करने वाले शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक याद हुआ कि नहीं....
उस शिष्य ने पूरा श्लोक गुरु को सुना दिया।
फिर भी गुरु ने सिर *नहीं* में हिलाया, तो शिष्य ने कहा कि वे चाहें, तो पुस्तक देख लें ; श्लोक बिल्कुल सही याद है।
गुरु ने पुस्तक देखते हुए कहा *श्लोक तो पुस्तक में ही है तो तुम्हारे दिमाग में कैसे चला गया? शिष्य कुछ भी उत्तर नहीं दे पाया*।
तब गुरु ने कहा *पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है तुमने जब श्लोक पढ़ा, तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे दिमाग में प्रवेश कर गया*।
*उसी सूक्ष्म रूप में वह तुम्हारे मस्तिष्क में भी रहता है और जब तुमने इसको पढ़कर कंठस्थ कर लिया, तब भी पुस्तक के श्लोक में कमी नहीं आई*।
*इसी प्रकार पूरे विश्व में व्याप्त परमात्मा हमारे द्वारा चढ़ाए गए निवेदन को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप की वस्तु में कोई कमी नहीं होती उसी को हम प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं*।
शिष्य को उसके प्रश्न का उत्तर मिल गया।
यही प्राबोध है, यही सुमरती है जिसके लिये यह मानव देह प्राप्त हुई है।
आपके पास अपने धर्म से जुडे हर प्रश्न का उत्तर होना चाहिए.....
शबरी
हर घर में शबरी है..!!
पति के लिए जूस बनाया और जूस पीने से पहले ही पति की आंख लग गई, नींद टूटी, तब तक एक घंटा हो चुका, पत्नी को लगा कि इतनी देर से रखा जूस कहीं खराब ना हो गया हो?
उसने पहले जरा सा जूस चखा और जब लगा कि स्वाद बिगड़ा नहीं है, तो पति को दे दिया पीने को..!
सवेरे जब बच्चों के लिए टिफिन बनाया तो सब्जी चख कर देखी, नमक, मसाला ठीक लगा तब खाना पैक कर दिया..!
स्कूल से वापस आने पर बच्चों को संतरा छील कर दिया..
एक -एक परत खोल कर चैक करने के बाद कि कहीं कीड़े तो नहीं हैं, खट्टा तो नहीं है, सब देखभाल कर जब संतुष्टि हुई तो बच्चों को एक एक करके संतरे की फाँके खाने के लिए दे दीं!
दही का रायता बनाते समय लगा कि कहीं दही खट्टा तो नहीं हुआ और चम्मच से मामूली दही ले कर चख लिया..!
"हां, ठीक है", जब यह तसल्ली हुई तब ही दही का रायता बनाया..!
सासू माँ ने सुबह खीर खूब मन भर कर खाई और रात को फिर खाने को मांगी तो झट से बहु ने सूंघी और चख ली कि कहीँ गर्मी में दिन भर की बनी खीर खट्टी ना हो गयी हो..!
बेटे ने सैंडविच की फरमाईश की तो खीरा छील एक टुकड़ा खा कर देखा कि कहीं कड़वा तो नहीं है! ब्रेड को सूंघा और चखा की पुरानी तो नहीं दे दी दुकान वाले ने! संतुष्ट होने के बाद बेटे को गर्मागर्म सैंडविच बनाकर खिलाया..!
दूध, दही, सब्जी,फल आदि ऐसी कितनी ही चीजें होती हैं जो औरतें हम सभी को परोसने से पहले मामूली-सी चख लेती हैं!
कभी कभी तो लगता है कि हर मां, हर पत्नी, हरेक स्त्री अपने घर वालों के लिए "शबरी" की तरह ही तो है..!
जो जब तक खुद संतुष्ट नहीं हो जाती, किसी को खाने को नही देती, और यही कारण तो है कि हमारे घर वाले बेफिक्र होकर इस "शबरी" के चखे हुए खाने को खाकर स्वस्थ और सुरक्षित महसूस करते हैं!
हमारे भारतीय परिवारों की हर स्त्री "शबरी" की तरह अपने परिवार का ख्याल रखती है और घर के लोग भी शबरी के इन झूठे बेरों को खा कर ही सुखी, सुरक्षित, स्वस्थ और संतुष्ट रहते हैं..!
हर उस महिला को समर्पित जो अपने परिवार के लिये "शबरी" के रोल को निभा रही है !!
बीवी
कभी लिस्ट बनाना ...
बीवी ने जो कुछ भी..
कभी भी बनाया है...
तुम लिस्ट बना नही पाओगे...
तुम्हे भी बस खाना ही दिखता है...
पर नही दिखती...
किचन की गर्मी,
उसका पसीना,
हाथ में गरम तेल के छींटे,
कटने के निशान,
कमर का दर्द,
पैरो में सूजन,
सफ़ेद होते बाल..
कभी नहीं दिखते...,,
कभी तो ध्यान से देखो ना,
उस की छोटी से रसोई में...
कोई दिखेगा तुम्हे, जो बदल गया है
इतने सालो में...
दांत हिले होंगे कुछ....
बाल झड़ गए होंगे कुछ...
झुर्रियां आयी होंगी
कुछ तुम्हारे मकान को घर बनाने में,,,,,
चश्मा लगाए,
हाथ में अपनी करछी,
बेलन लिए जुटी होगी...
आज भी वही कर रही है..
जो कर रही है वो
पिछले पच्चीस तीस सालों से,
और तुम्हे देखते ही पूछेगी
क्या चाहिए?”...
कभी देखना उसके मन के
कुछ अनकहे ज़ज़्बात,
दबी हुई इच्छाएं,,
जो दिखती नही..
क्योंकि जो दिखती नही,
उन्हें देखना और भी ज़्यादा ज़रूरी होता है...
_वो कहती है बनाने में घण्टों लगते है...
और खाने में पल भर ...
_कभी कुछ बड़े जतन से बनाती है...
सुबह से तैयारी करके...
कभी कुछ धुप में सुखा के...
तो कभी कुछ पानी में भिगो के...
कभी मसालेदार..
तो कभी गुड़ सी मीठी...
सारे स्वाद समेट लेती हैं ...
आलू के पराठों में,
या गाजर के हलवे में,
ऊपर बारीक कटे धनिये के पत्तो में,
या पीस कर डाले गए इलाइची के दानों में...
*सारे स्वाद समेट देती हैं एक छोटी सी थाली में...
न जाने कहाँ कहाँ से लाती है...
ना जाने कितना कुछ तो होता है ...
जब रसोई से दो बिस्किट या रस हाथ में लेकर निकलता हूँ,, कभी उसकी गैर मौजूदगी में...
तब उसकी बात सोचने पे मज़बूर कर देती है... *क्योंकि उसने सिर्फ खाना ही नहीं बनाया है इतने सालो में...*
तुम्हें भी बनाया है...
खुद को मिटा के...
और याद है न...
बनाने में घण्टों लगते है..
ख़तम एक बार में हो जाता है
...पूरा घर बनाया है...
दिन रात मेहनत करके...
कभी बनाना लिस्ट और क्या क्या बनाया है
बीवी ने... लिस्ट बन नहीं पाएगी
कोशिश करना ..
कभी बन नहीं पाएगी ....
@everyone
23.06.2025
पढ़ाई
मैं तब 14 साल का था, जब पहली बार स्कूल छोड़ने का मन किया।
क्योंकि अगली सुबह स्कूल में जूते पहनकर नहीं, चप्पल में जाना था।
मेरे सारे दोस्त हँसते थे —"भाई तेरी चप्पल देखकर तो स्कूल का मूड ही खराब हो जाता है!"और मैं भी जबरदस्ती हँस देता…लेकिन अंदर से मेरी रूह रोती थी।
"हमारे लिए पढ़ाई शौक नहीं, ज़रूरत थी"
मेरे पापा रिक्शा चलाते थे।मां घरों में झाड़ू-पोछा करती थी।और मैं…? मैं बस सोचता रहता था — क्या गरीब बच्चों के सपने नहीं होते?
एक दिन स्कूल से लौटते वक्त मैंने मां से कहा:
“मुझे नहीं पढ़ना। काम करूँगा।”
मां चुप रही।फिर धीरे से बोली:
“पढ़ ले बेटा… वरना ज़िंदगी ताना मारती रहेगी। लोग नहीं।”
"काम के बहाने पढ़ाई छोड़ दी… और फिर?"
मैं 10वीं के बाद स्कूल छोड़कर होटल में वेटर बन गया।दिन में चाय परोसता, रात को झूठे बर्तन साफ करता।कभी-कभी मन करता — किसी टेबल पर बैठकर मैं भी पढ़ूं…
लेकिन फिर याद आता — घर चलाना है।
एक दिन एक आदमी ने मुझे चाय देते हुए कहा:
“बेटा, तुम में कुछ बात है। पढ़ना मत छोड़ना।“मैंने मुस्कुराकर जवाब दिया – “जी, सर।”लेकिन मन में बस एक ही बात चल रही थी –“सर… पढ़ाई छोड़ चुका हूं, सपने नहीं।”
"टर्निंग पॉइंट – एक पुरानी कॉपी"
एक रात होटल बंद होने के बाद सफाई करते वक्त एक पुरानी कॉपी मिली।किसी बच्चे की – जिसमें ऊपर लिखा था:
“मेरे सपने – मैं IAS बनूंगा।”
पता नहीं क्यों, वो कॉपी मैंने घर ले आया।उसी रात मां ने देखा – मैं कॉपी पढ़ रहा हूं।
“किसकी है?”“पता नहीं…”“तू भी बन सकता है IAS। कोई अमीर ही थोड़ी बनता है।”
मैं हँस दिया।
लेकिन वो बात दिल में कहीं बैठ गई।
"दूसरी शुरुआत – पर Zero से"
मैंने फिर से पढ़ाई शुरू की।दिन में होटल, रात में पढ़ाई।WhatsApp नहीं था, Instagram नहीं था –बस पुरानी किताबें और मां की दुआएं थीं।
"UPSC नहीं निकली… पर ज़िंदगी निकल गई"
मैंने तीन बार UPSC दिया।निकल नहीं पाई।लेकिन आज…
मैं एक सरकारी स्कूल में टीचर हूं।
"उस दिन मां मुस्कराई थी"
पहली सैलरी मिली — मां को हाथ में पकड़ा दी।मां बोली:
“आज पहली बार कोई ताना नहीं मारेगा…”
मैं रो पड़ा।
❤️ सीख?
“हर कोई IAS नहीं बनता… लेकिन हर कोई किसी की inspiration बन सकता है।”
अगर तुम ये पढ़ रहे हो, और तुम्हें लग रहा है कि ज़िंदगी खत्म हो गई —तो याद रखना:
"जिंदगी वहां से शुरू होती है, जहाँ लोग कहते हैं – 'अब कुछ नहीं हो सकता।’"
मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान
एक बार बाजार में चहलकदमी करते एक व्यापारी को व्यापार के लिए एक अच्छी नस्ल का ऊँट नज़र आया।
व्यापारी और ऊँट बेचने वाले ने वार्ता कर, एक कठिन सौदेबाजी की।
ऊँट विक्रेता ने अपने ऊँट को बहुत अच्छी कीमत में बेचने के लिए, अपने कौशल का प्रयोग कर के व्यापारी को सौदे के लिए राजी कर लिया।
वहीं दूसरी ओर व्यापारी भी अपने नए ऊँट के अच्छे सौदे से खुश था।
व्यापारी अपने पशुधन के बेड़े में एक नए सदस्य को शामिल करने के लिए उस ऊँट के साथ गर्व से अपने घर चला गया।
घर पहुँचने पर, व्यापारी ने अपने नौकर को ऊँट की काठी निकालने में मदद करने के लिए बुलाया।
भारी गद्देदार काठी को नौकर के लिए अपने बलबूते पर ठीक करना बहुत मुश्किल हो रहा था।
काठी के नीचे नौकर को एक छोटी मखमली थैली मिली, जिसे खोलने पर पता चला कि वह कीमती गहनों से भरी हुई है।
नौकर अति उत्साहित होकर बोला, "मालिक आपने तो केवल एक ऊँट ख़रीदा, लेकिन देखिए इसके साथ क्या मुफ़्त आया है?"
अपने नौकर के हाथों में रखे गहनों को देखकर व्यापारी चकित रह गया। वे गहने असाधारण गुणवत्ता के थे, जो धूप में जगमगा और टिमटिमा रहे थे।
व्यापारी ने कहा, "मैंने ऊँट खरीदा है," गहने नहीं ! मुझे इन जेवर को ऊँट बेचने वाले को तुरंत लौटा देना चाहिए।"
नौकर हतप्रभ सा सोच रहा था कि उसका स्वामी सचमुच मूर्ख है! वो बोला, "मालिक! इन गहनों के बारे में किसी को पता नहीं चलेगा।"
फिर भी, व्यापारी वापस बाजार में गया और वो मखमली थैली ऊँट बेचने वाले को वापस लौटा दी।
ऊँट बेचने वाला बहुत खुश हुआ और बोला, "मैं भूल गया था कि मैंने इन गहनों को सुरक्षित रखने के लिए ऊँट की काठी में छिपा दिया था.......आप, पुरस्कार के रूप में अपने लिए कोई भी रत्न चुन सकते हैं।"
व्यापारी ने कहा "मैंने केवल ऊँट का सौदा किया है, इन गहनों का नहीं , धन्यवाद, मुझे किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।"
व्यापारी ने बार बार इनाम के लिए मना किया, लेकिन ऊँट बेचने वाला बार बार इनाम लेने पर जोर डालता रहा।
अंत में व्यापारी ने झिझकते हुए कहा, "असल में जब मैंने थैली वापस आपके पास लाने का फैसला किया था, तो मैंने पहले ही दो सबसे कीमती गहने लेकर, उन्हें अपने पास रख लिया।"
इस स्वीकारोक्ति पर ऊँट विक्रेता थोड़ा स्तब्ध था और उसने झट से गहने गिनने के लिए थैली खाली कर दी।
वह बहुत आश्चर्यचकित होकर बोला "मेरे सारे गहने तो इस थैली में हैं! तो फिर आपने कौन से गहने रखे?
"दो सबसे कीमती वाले" व्यापारी ने जवाब दिया-
"मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान"
कुरुक्षेत्र
कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र को सेनाओं के आवागमन के लिए तैयार किया जा रहा था। उन्होंने हाथियों का इस्तेमाल पेड़ों को उखाड़ने और जमीन साफ करने के लिए किया। एक पेड़ पर एक गौरैया अपने चार बच्चों के साथ रहती थी जब उस पेड़ को उखाड़ा जा रहा था तो उसका घोंसला जमीन पर गिर गया, लेकिन वो और उसकी संताने अनहोनी से बच गई। लेकिन वो अभी बहुत छोटे होने के कारण उड़ने में असमर्थ थे।भयभीत गौरैया मदद के लिए यहाँ- वहाँ देखती रही। तभी उसने कृष्ण को अर्जुन के साथ आते देखा।उसने श्रीकृष्ण के रथ तक पहुँचने के लिए अपने छोटे पंख फड़फड़ाए और किसी प्रकार श्री कृष्ण के पास पहुंचकर कहा,"हे कृष्ण !! कृपया मेरे बच्चों को बचाएं क्योकि लड़ाई शुरू होने पर कल उन्हें कुचल दिया जायेगा।"
भगवन बोले,"मैं तुम्हारी बात सुन रहा हूं, लेकिन मैं प्रकृति के कानून में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।"
गौरैया ने कहा,"भगवन !! मै जानती हूँ कि आप मेरे उद्धारकर्ता हैं, मैं अपने बच्चों के भाग्य को आपके हाथ सौंपती हूँ अब यह आपके ऊपर है आप मारते हैं या उन्हें बचाते हैं!"
"काल चक्र पर किसी का बस नहीं है।", श्री कृष्ण ने एक साधारण व्यक्ति की तरह उससे कहा।
गौरैया ने विश्वास और श्रद्धा से कहा," प्रभु !! आप कैसे और क्या करते हैं मैं नहीं जानती लेकिन आप स्वयं काल नियंता हैं मैं स्वयं को परिवार सहित आपको समर्पण करती हूँ!"
भगवन बोले,"अपने घोंसले में तीन सप्ताह के लिए भोजन का संग्रह करो।" गौरैया और श्रीकृष्ण के संवाद से अनभिज्ञ अर्जुन गौरैया को भगाने की कोशिश करते रहे। दो दिन बाद,शंख के उदघोष से युद्ध शुरू होने की घोषणा की गई।
श्री श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,"अपने धनुष- बाण मुझे दो।" अर्जुन चौंका क्योंकि श्री श्रीकृष्ण ने युद्ध में हथियार नहीं उठाने की शपथ ली थी। साथ ही अर्जुन मानता था कि वह ही सबसे अच्छा धनुर्धर है।"मुझे आज्ञा दें, भगवन !!", अर्जुन ने दृढ़ विश्वास के साथ कहा,"मेरे तीरों के लिए कुछ भी अभेद्य नहीं है!"
लेकिन अर्जुन से धनुष लेकर श्री श्रीकृष्ण ने एक हाथी को निशाना बनाया तीर हाथी के गले की घंटी से टकराया और एक चिंगारी सी उड़ी अर्जुन ये देख कर अपनी हंसी नहीं रोक पाया कि कृष्ण एक आसान सा निशान चूक गए।
"क्या मैं प्रयास करू?", उसने स्वयं को प्रस्तुत किया। उसकी प्रतिक्रिया को नजरअंदाज करते हुए, श्री श्रीकृष्ण ने उन्हें धनुष वापिस देकर कहा,"कोई और कार्रवाई आवश्यक नहीं है।"
"लेकिन केशव तुमने हाथी को क्यों तीर मारा?", अर्जुन ने पूछा। "क्योंकि इस हाथी ने उस गौरैया के आश्रय उसके घोंसले को जो कि एक पेड़ पर था उसको गिरा दिया था।",
"कौन सी गौरैया?",अर्जुन ने पूछा। "इसके अतिरिक्त हाथी तो अभी स्वस्थ और जीवित है केवल घंटी ही टूट कर गिरी है।"
श्री कृष्ण ने उसे शंख फूंकने का निर्देश दिया। युद्ध शुरू हुआ, अगले अठारह दिनों में कई जानें गईं और अंत में पांडवों की जीत हुई। एक बार फिर, श्री श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने साथ सुदूर क्षेत्र में भ्रमण करने के लिए ले गए। कई शव अभी भी वहाँ हैं जो उनके अंतिम संस्कार का इंतजार कर रहे थे।
श्री श्रीकृष्ण एक निश्चित स्थान पर रुके और एक घंटी जो कि हाथी पर बाँधी जाती थी उसे देख कर विचार करने लगे।
अर्जुन, क्या मेरे लिए यह घंटी उठाकर एक तरफ रख दोगे। निर्देश बिलकुल सरल था परन्तु अर्जुन के समझ में नहीं आया क्योंकि, विशाल मैदान में जहाँ बहुत सी अन्य चीज़ों को साफ़ करने की ज़रूरत थी, कृष्ण उसे धातु के एक टुकड़े को रास्ते से हटाने के लिए क्यों कहेंगे?उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से उनकी ओर देखा।
"हाँ,यह घंटी!", श्रीकृष्ण ने दोहराया। "वही घंटी है,जो हाथी की गर्दन पर पड़ी थी,और मैंने तीर मारा था।"
अर्जुन बिना किसी और सवाल के भारी घंटी उठाने के लिए झुका और जैसे ही उसे उठाया,तो देखा एक,दो, तीन,चार और पाँच। चार युवा पक्षी और एक गौरैया उस घंटी के नीचे से निकले। बाहर निकल के माँ और छोटे पक्षी श्री कृष्ण के इर्द- गिर्द मंडराते हुए बड़े आनन्द से उनकी परिक्रमा करने लगे। अठारह दिन पहले काटी गई एक घंटी ने पूरे परिवार की रक्षा की।
"मुझे क्षमा करें हे श्रीकृष्ण!" , अर्जुन ने कहा, "आपको मानव शरीर में देखकर और सामान्य मनुष्यों की तरह व्यवहार करते हुए, मैं भूल गया था कि आप वास्तव में कौन हैं?"
हे श्री श्रीकृष्ण! घंटी रूपी घर में परिवार के साथ अन्न जल ग्रहण करते हुए, प्रभु आपके प्रति हम अपनी आस्था रखते हुए विश्राम करें जब तक ये हमारे लिए उठाई न जाये..!!
जय श्री राधेकृष्णा!!
08.06.2025
श्री सुंदरकांड पाठ-वर्तमान में बिगड़ता स्वरूप, विचारणीय। 😌
सुन्दरकाण्ड की बुकिंग करने के बाद कई लोग फोन लगा-लगा कर कहते हैं कि पंडित जी अच्छे से करना, मज़ा आ जाए एकदम। *
वैसे तो हम फलानी मंडली को बुलाते थे पर आपके बारे में सुना तो सोचा आपको बुलाएं, इसलिए ऐसा सुन्दरकाण्ड करना कि माहौल बन जाए।
सच में क्या अजीब मानसिकता हो गई है आज लोगों की ? सुन्दरकाण्ड जैसी अद्भुत हनुमान कथा को मनोरंजन बनाकर रख दिया है और ऐसा भी नहीं है कि वह सुन्दरकाण्ड की चौपाई सुनकर आनंदित होना चाहते हैं। नहीं_ वह सुनना चाहते हैं तड़कता-भड़कता हुआ संगीत.*
सुन्दरकाण्ड एक बहुत सामर्थ्यशाली, ऊर्जा प्रदायक, प्रेरणादायक, समाधान कारक, प्रबंधन के सूत्रों से भरा और शांति देने वाला एक अमूल्य साधन है, पर हमने आज उसी सुन्दरकाण्ड पाठ की इतनी फजीहत कर रखी है कि क्या ही कहा जाए और इसीलिए सुन्दरकाण्ड करने-कराने का फल हमें नहीं मिल पाता, क्योंकि हम सुन्दरकाण्ड के प्रति अपना भाव ही नहीं रखते, बल्कि हमारा पूरा ध्यान मात्र थिरकने पर होता है।
आश्चर्य तो तब होता है जब लोग मुंह में गुटखा भरकर, बीच-बीच में चाय और शरबत की चुस्कियां लेकर सुन्दरकाण्ड पाठ करते हैं और इसमें सबसे बड़े सहयोगी होते हैं आयोजक जो कि बीच-बीच में शरबत और चाय पेश करते हैं। उतने ही दोषी है- सुंदरकांड मण्डली भी, जो विकृति को बढ़ावा देती है।
सुन्दरकाण्ड कराते समय एक आसन पर स्थिर होकर बैठना चाहिए। अगर बहुत जरूरी हो तो पानी लिया जा सकता है, पर बीच-बीच में पार्टी की तरह शरबत और चाय लेकर नहीं घूमना चाहिए भजन कीर्तन भी करना हो तो अंत में किया जाना चाहिए।
अतः निवेदन है कि अपनी संस्कृति और धर्म का उपहास न बनाएं। सुन्दरकाण्ड पाठ मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि उसमें श्री हनुमान जी का पवित्र चरित्र है ।🙏
जय श्री राम
जय श्री राम
जय श्री हनुमान
राम आपकी आत्मा है,
सीता आपका दिल है,
रावण आपका मन है जो आपकी आत्मा से आपका दिल चुरा लेता है,
लक्ष्मण आपकी चेतना है,
हमेशा आपके साथ और अपनी ओर से सक्रिय,
हनुमान आपका अंतर्ज्ञान और साहस है जो आपकी आत्मा को फिर से करने के लिए आपके दिल को पुनः प्राप्त करने में मदद करता है ...
(रामायण की उत्कृष्ट व्याख्या)
नारियल
मंदिर में नारियल तोड़ना ये बताता है कि सबसे पहले हम नारियल की जटा हटाते हैं, ये जटा है हमारी इच्छाएं, जिन्हें सबसे पहले हटाना है। फिर उसका कठोर हिस्सा तोड़ते है, ये है हमारा अहंकार, जिसे हटाना बहुत जरुरी है। फिर निकलता है पानी, ये हमारे अंदर के नकारात्मक विचार हैं जिनके निकल जाने के बाद फिर आती है प्योर सफ़ेद गरी "जो आत्मा का प्रतीक है" बिना इच्छा, अहंकार और नकारात्मक सोच हटाये हम परमात्मा से नहीं मिल सकते.
धक्का
मान लीजिए, आप हाथ में एक थैला लिए जा रहे हैं — वो थैला पूरी तरह बंद। कोई नहीं जानता उसके अंदर क्या है। अचानक कोई आपको पीछे से धक्का दे देता है, और थैला ज़ोर से ज़मीन पर गिर जाता है। थैले का मुँह खुलता है... और जो कुछ भी उसमें था, वो बाहर बिखर जाता है।
अब लोग क्या देखेंगे? जो अंदर था, वही बाहर निकलेगा।
अगर उसमें किताबें थीं — पन्ने बिखरेंगे।
अगर उसमें काँच था — चुभन और किरचें फैलेंगी।
अगर फूल थे — खुशबू आएगी।
अगर गंदगी थी — बदबू आएगी।
धक्का देने वाला कौन था, क्यों धक्का लगा — यह बात कुछ देर बाद धुंधला पड़ जाती है।
पर जो बाहर निकला — वो सच बनकर रह जाता है।
अब सोचिए, वो थैला आप हैं।
आपके अंदर क्या है — वह तब तक सबको नहीं पता चलता, जब तक ज़िंदगी आपको एक धक्का नहीं देती।
आप कितने भी शांत, सुसंस्कृत, सजीले दिखें —
पर जब कोई तकलीफ़, ग़ुस्सा, धोखा या दुख एक झटका बनकर टकराता है ??
तब आपके अंदर जो सच में भरा है, वही बाहर बिखरता है।
कोई चीख़ता है, कोई टूटता है, कोई औरों को तोड़ता है।
और कोई—बस मुस्कुराकर चुप रह जाता है।
इसलिए ज़रूरी है — धक्का लगने से पहले तय कर लें, थैले में क्या भर रहे हैं।
क्योंकि वो छुपेगा नहीं, एक दिन सबके सामने बिखरेगा।
01.06.2025
आइसक्रीम
_इतवार का दिन था! इतवार को हमारे यहाँ साप्ताहिक बाज़ार लगता है।_
_सब्जी से लेकर लगभग सभी घरेलू सामान,बाज़ार में आसानी से मिल जाता है।_
_आसपास के लोग भी इसी बाज़ार में ख़रीदारी करने आते हैं।_
_मैं भी हर हफ्ते की भाँति सब्जी,दालें और कुछ सामान लेकर आ रहा था।_
_आइसक्रीम वाले के पास से गुजरा- तो कदम रूक गये!_
_*आइसक्रीम* बचपन से ही मेरी कमज़ोरी रही है- और पत्नी व बेटी की भी डिमांड थी!_
_मैंने आइसक्रीम वाले के पास जाकर पूछा- भैया, आइसक्रीम...!?_
_तो उसने मेरे हाथ में प्राइज लिस्ट थमाकर कहा- देख लीजिए भैया जी ! *कौन सी दूं...?*_
_मैंने सरसरी नज़रों से प्राइज लिस्ट का मुआयना किया और पाया कि 15 रूपए से 90 रूपए तक की आइसक्रीम है।_
_मैंने अपनी जेब से 25 रूपए निकालकर अपनी हैसियत के अनुसार आइसक्रीम ख़रीद ली- और आइसक्रीम वाले के पास खड़ा होकर,उससे बातें करता हुआ,आइसक्रीम खाने लगा।_
_मैंने पूछा - क्यों भाई! यह तुम्हारी अपनी ही आइसक्रीम गाड़ी है.....?_
_हाँ बाबू जी! आइसक्रीम वाले ने कहा: अब भला कब तलक दूसरों की मज़दूरी करें और महंगाई का टेम है, *200-250 रूपए में क्या होता है ।*_
_तीन बच्चे भी हैं,बच्चे पढ़ते भी हैं,किराया भी है, बिजली का बिल वगैरह आदि।_
_बड़ी मुश्किल है- साहिब!, कैसे जीया जाए, इस महंगाई में:_
_मैंने भी अपना दुखड़ा रोना शुरू किया - हाँ भाई,सही कह रहे हो- गुजर बसर करनी मुश्किल हो रही हैं!_
_इस देश से मीडिल क्लास वाले ख़त्म ही हो जायेंगे,या तो एकदम:_
*_अपर या एकदम लोअर क्लास ही बचेगी!_*
_अभी मेरी बातचीत आइसक्रीम वाले से हो ही रही थी- कि तभी एक आदमी,औरत,और एक बच्चा (आयु लगभग 5 वर्ष ),आइसक्रीम वाले के पास आकर रुक गए। देखने में दोनों ईंट भट्टा के मज़दूर लग रहे थे- क्योंकि हमारे यहाँ ईंट भट्टा कम्पनियों की भरमार है!_
_उस आदमी ने सकुचाते हुए,आइसक्रीम वाले से कहा: *तीन ठो, आइसक्रीम तो दीजिए 5-5 वाली।*_
_आइसक्रीम वाला- कड़क आवाज़ में बोला: हम 5 वाला आइसक्रीम नहीं रखते- 15 वाला है, लीजिएगा!_
_आइसक्रीम वाले की बात सुनकर तीनों का चेहरा लगभग उतर गया!_
_बच्चे ने माँ का पल्लू खींचकर - धीरे से *आइसक्रीम* कहा उस आदमी ने फिर साहस करके - अपनी जेब में हाथ डालकर,जेब में पड़ी चिल्लर को हिलाया- और औरत की तरफ़ देखकर कहा: *का हो,खा बानी!* औरत ने सिर हिलाते हुए कहा: *ना,चली बे।*_
_ऐसा कहकर तीनों वहाँ से चल दिए! मैं वहीं खड़ा होकर यह सब देख रहा था ।_
_ना जाने क्यों,मेरा मन मचल रहा था कि मैं उन तीनों को आइसक्रीम दिला दूँ।_
_किन्तु मेरे पास जो पैसे थे,उनसे कुछ बीबी का बताया हुआ- सामान लेकर जाना था !और अपनी बिटिया के लिए भी आइसक्रीम लेकर जानी थी,सो मैं अपने मन के भाव को वहीं मारकर,खड़ा रहा।_
_जब तक मैं आइसक्रीम वाले से उनके बारे में कुछ कहता- कि अचानक तीनों वापिस आ गए - और आइसक्रीम वाले से कहा- *दीजिए ! एक ठो आइसक्रीम।*_
_आदमी ने अपनी जेब से चिल्लर रूपी - *15 रूपए* इकट्ठे करके आइसक्रीम वाले को दे दिये और आइसक्रीम लेकर औरत को थमा दी।_
_औरत ने सबसे पहले आइसक्रीम बच्चे को खिलाई- और फिर उसके बाद उस आदमी को खाने के लिए दी।_
_आदमी ने आइसक्रीम लेने में संकोच करते हुए बोला: *ना बानी,तुम खाबो।*_
_लेकिन उस औरत ने जबरदस्ती अपनें हाथों से,उसे आइसक्रीम खिला दी।_
_एक बार आइसक्रीम खाकर उस आदमी ने, आइसक्रीम औरत के होंठों से लगा दी।_
_औरत से ज़रा सी चखकर,बाकी की आइसक्रीम- बच्चे को थमा दी।_
_मै वहीं खड़ा होकर यह दृश्य देख रहा था, तथा कुछ देर पहले आइसक्रीम वाले के साथ मिलकर अभावों का रोना रो रहा था।_
_*वो तीनों जीवन के हसीन लम्हें - सीमित संसाधनों में खुशी-खुशी जीकर जा रहे थे।*_
_मैं और आइसक्रीम वाला,दोनों एक दूसरे को चुपचाप समझा रहे थे- कि खुशियाँ- ना तो ज़्यादा से बढ़ती हैं- और ना ही कमी से कम होती है।_
*_बस आपको हर परिस्थिति में उत्सव मनाने का तरीका आना चाहिए।_*
सेब का सबक
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पहली कक्षा को गणित पढ़ा रही टीचर ने एक लड़के से पुछा: अगर मैं तुम्हें एक सेब और एक सेब और एक सेब दूं, तो तुम्हारे पास कितने सेब होंगे? कुछ सेकंड सोचकर लड़के ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया: चार! जवाब सुनकर टीचर थोड़ी निराश हुई। उसने सोचा कि शायद लड़के ने प्रश्न ठीक से सुना नहीं। उसने अपना प्रश्न दोहराया: कृपया ध्यान से सुनें और फिर जवाब दें। अगर मैं तुम्हें एक सेब और एक सेब और एक सेब दूं, तो तुम्हारे पास कितने सेब होंगे? लड़के ने फिर से अपनी उँगलियों पर हिसाब लगाया और थोड़ा झिझकते हुए उसने जवाब दिया: चार।
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टीचर फिर से मायूस हो गई। उसे याद आया कि लड़के को स्ट्रॉबेरी बहुत पसंद है। उसने सोचा कि लड़के को सेब पसंद नहीं इसीलिए शायद उसका ध्यान भटक रहा है। ये सोचकर टीचर को लगा कि उसके हाथ बच्चे का राज़ लग गया है। अति उत्साह और चमकती आँखों से उसने लड़के से पूछा: अगर मैं आपको एक स्ट्रॉबेरी और एक स्ट्रॉबेरी और एक स्ट्रॉबेरी दूं, तो आपके पास कितनी स्ट्रॉबेरी होंगी? लड़के ने फिर अपनी उंगलियों पर हिसाब लगाया। लड़के पर तो कोई दबाव नहीं था, लेकिन टीचर ज़रूर दबाव महसूस कर रही थी। लड़के ने झिझकती हुई मुस्कान के साथ उत्तर दिया: तीन। टीचर ख़ुशी से उछल पड़ी।
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उनका तरीका सफल हो गया था। वह खुद को शाबाशी देना चाहती थी। टीचर ने सोचा इससे पहले एक आखिरी बार और पूछ लेती हूँ। उसने बच्चे से फिर पूछा: अब अगर मैं तुम्हें एक सेब और एक सेब और एक और सेब दूं, तो तुम्हारे पास कितने सेब होंगे? इस बार बच्चे ने तुरंत जवाब दिया: चार! जवाब सुनकर टीचर को समझ नहीं आय कि वह क्या करे। उसने थोड़े गुस्से और चिड़चिड़ी आवाज में लड़के से कहा: मुझे समझाओ कैसे?" लड़के ने झिझकते हुए जवाब दिया: तीन सेब आप देंगी और एक सेब पहले से मेरे बैग में रखा है।
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बात का सार ये है कि जब कोई आपको ऐसा उत्तर देता है जो आपकी अपेक्षा से भिन्न होता है, तो जरूरी नहीं कि वे गलत हों। हो सकता है कि उनके बैग में एक सेब रखा हो।
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भावानुवाद: अमित डागर 89308-30333
लेखक: अज्ञात
चित्र साभार: इंटरनेट (Facebook)
TATA की कार नहीं चली
रत्न टाटा ने सोचा कि कार बनाने वाली यूनिटस को सेल कर देते हैं. अमेरिका में फोर्ड कम्पनी संग बात आगे बढ़ी.. ज़ब बात फाइनल होनी थी तो फोर्ड बिल बोले- ये बचपना करने की क्या जरूरत थी, कि कार बनाने चल पड़े..( यानि एहसान सा दिखाया फोर्ड बिल ने रत्न टाटा पे, जाणु वो टाटा की कार यूनिट्स खरीदकऱ कोई एहसान कर रहे हैं )
रत्न टाटा वापिस इंडिया आए और टीम को बोले- हम यूनिट नहीं बेचेंगे बल्कि सुधार करेंगे खुद में...! रत्न टाटा झल्लाए नहीं, सुधार किया और 2008-09 आते आते टाटा ने अपने पैर जमा दिए भारतीय कार बाजार में..
फिर एक दिन वो भी आया कि उसी फोर्ड की लेंड रोवर और जगुआर खरीदी टाटा ने. आज इंडिया में फोर्ड नहीं है उसका बहुत सा सौदा टाटा क़े पास है..!
तो रत्न टाटा क़े जीवन क़े उस वाक्या से हमें समझ लेणा चाहिए कि दौऱ बदल जाया करते हैं बस हमारे प्रयास हमारी कमियों में सुधार कर उन्हें दूर करने क़े होने चाहिएं..!
चित्रकार
*एक बहुत अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना पोट्रट बनवाया गया, तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आयी। वह बहुत खुश थी।
चित्रकार से उसने कहा, कि क्या आपको पुरस्कार दूं?
चित्रकार गरीब आदमी था।
गरीब आदमी मांगे भी तो कितना मांगे? हमारी मांग, सब गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से।
हम जो मांग रहे हैं, वह क्षुद्र है। जिससे मांग रहे हैं, उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए। तो उसने सोचा मन में कि सौ डालर मांगूं, दो सौ डालर मांगूं, पांच सौ डालर मांगूं।
फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी। इतना देगी, नहीं देगी!* फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं, शायद ज्यादा दे।
डर तो लगा मन में कि इस पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर! *तो उसने फिर भी हिम्मत की। उसने कहा कि आपकी जो मर्जी। महिला के हाथ में जो बैग था, पर्स था, उसने कहा, तो अच्छा! यह #पर्स तुम रख लो। यह बडा कीमती पर्स है।*
*पर्स तो कीमती था, लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गयी कि पर्स को रखकर करूंगा भी क्या?* माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता-जाता नहीं।
इससे तो बेहतर था कुछ #सौडालर ही मांग लेते। तो उसने कहा, नहीं-नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा, आप कोई सौ डालर दे दें। *उस महिला ने कहा, तुम्हारी मर्जी। उसने पर्स खोला, उसमें #एकलाख डालर थे, उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर वह चली गयी। सुना है कि #चित्रकार अब तक छातीपीट रहा है और रो रहा है–मर गये, मारे गये, अपने से ही मारे गये!
*आदमी करीब-करीब इस हालत में है। परमात्मा ने जो दिया है, वह बंद है, छिपा है।* और हम मांगे जा रहे हैं–दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात। और वह #जीवन की जो संपदा उसने हमें दी है, उस पर्स को हमने खोल कर भी नहीं देखा है। जो मिला है, वह जो आप मांग सकते हैं, उससे अनंत गुना ज्यादा है।
लेकिन मांग से फुरसत हो, तो दिखायी पड़े, वह जो मिला है।
17.05.2025
मैंने जीवन में कई किताबें पढ़ी हैं, लेकिन मैंने उनमें से अधिकांश जानकारी याद नहीं रखी। तो फिर इतनी सारी किताबें पढ़ने का क्या लाभ है?
एक दिन, एक छात्र ने अपने प्रोफेसर से यही सवाल पूछा। प्रोफेसर चुप रहे और उस दिन कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ दिनों बाद, छात्र और प्रोफेसर एक नदी के किनारे मिले। प्रोफेसर ने छात्र को छेदों वाला एक बर्तन दिखाया और कहा, "आओ, इस बर्तन से नदी से पानी लाते हैं।"
छात्र ने बर्तन देखा, जिसमें कई छेद थे। उसने सोचा कि यह बेकार की बात है, क्योंकि इस बर्तन से पानी लाना असंभव है। लेकिन वह अपने प्रोफेसर की बात को टाल नहीं सका, इसलिए उसने बर्तन उठाया और नदी की ओर दौड़ा।
उसने बर्तन में पानी भरा और वापस लाने की कोशिश की, लेकिन कुछ ही कदम चलने के बाद पानी छेदों से रिसकर बाहर गिर गया। उसने कई बार प्रयास किया लेकिन हर बार असफल रहा और निराश हो गया।
आखिरकार, वह अपने प्रोफेसर के पास लौटा और बोला, "मैं असफल हो गया। मैं इस बर्तन में पानी नहीं ला सका। यह मेरे लिए असंभव है, कृपया मुझे क्षमा करें।"
प्रोफेसर मीठा-सा मुस्कराए और बोले, "तुम असफल नहीं हुए। जरा बर्तन को देखो; यह अब साफ हो गया है। यह एक नए बर्तन की तरह चमक रहा है। जब भी पानी छेदों से बाहर गिरा, उसने बर्तन के अंदर की सारी गंदगी साफ कर दी।
यही बात तुम्हारे साथ भी होती है। जब तुम एक किताब पढ़ते हो, तो तुम्हारा मन उस छेदों वाले बर्तन की तरह होता है, और किताब की जानकारी पानी की तरह। जब तुम कोई किताब पढ़ते हो, तो तुम्हें सब कुछ याद नहीं रहता। लेकिन क्या हर चीज़ याद रखना जरूरी है? नहीं, क्योंकि किताबें पढ़ने से तुम्हें नए विचार, ज्ञान, भावनाएँ, अनुभूतियाँ और सत्य मिलते हैं, जो तुम्हारे मन को शुद्ध कर देते हैं।
हर बार जब तुम कोई किताब पढ़ते हो, तो तुम्हारे भीतर एक आत्मिक परिवर्तन होता है, और तुम एक नए व्यक्ति के रूप में जन्म लेते हो। यही किताबें पढ़ने का असली उद्देश्य है।"
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17.05.2025
शहर के मशहूर लोहार के पास एक नौजवान आया और बोला मुझे ऐसी तलवार बना दो जो सबसे अलग हो मुझे बादशाह की फौज में जंग में जाना है, मैं कुछ कमाल करना चाहता हूँ, लोहार ने कहा ऐसी तलवार बनाने में समय लगता है, आप एक साल इंतजार करेंगे...?
नौजवान तैयार हो गया, लोहार ने उससे कहा अब आप एक साल फ्री है तो ऐसा करो कि तलवार चलाने की कला तलवार के गुरू से सीखो, आपकी ये तलवार बहुत खास होगी, इसलिए किसी माहिर गुरु का छात्र होना ज़रूरी है, नौजवान ने प्रशिक्षण शुरू कर दिया, एक साल बाद वो लोहार के पास आया और उससे अपनी तलवार ले ली, जंग में गया, खूब तारीफ और नाम कमाया,
जब नौजवान जंग से लौटकर लोहार का शुक्रिया अदा करने आया तो लोहार ने कहा शुक्रिया उस उस्ताद का अदा करो जिससे तुमने तलवारबाज़ी की कला सीखी, तुम्हारी ये तलवार आम तलवार थी जो दो दिन में बन गई, यह आपकी कला है जो एक साधारण चीज़ को ख़ास बनाती है, प्रशिक्षण वह जादू है जो किसी भी कार्य के परिणाम को इतना विशेष बनाता है कि देखने वालों को लगता है कि यह जादू है, क्योंकि प्रशिक्षण आत्मविश्वास देता है,
आत्मविश्वास भी एक जादू है, ये जादू आपसे कुछ भी करवा सकता है, अगर आपको इसका मंतर मालुम हो.
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17.05.2025
मुझे यह प्रश्न मिलते रहे हैं कि व्यस्त जीवन में समय कैसे निकालें? घड़ी तो रुक नहीं सकती, दिन में घंटे बढ़ नहीं सकते। यह प्रश्न एक बार अपनी माँ से पूछा, जो कामकाजी गृहणी हैं। उन्होंने गृहणी की भाँति एक सूटकेस का उदाहरण दिया, जिसमें कपड़े और सामान एक ख़ास तरह से रखे जाएँ तो अधिक से अधिक पैक हो जाएँगे। बेतरतीब से रखे जाएँ, तो आधी चीजें बाहर ही रह जाएगी। समय भी उस सूटकेस की तरह है, जिसमें दिनचर्या को तरतीब से रख देना है। अगर ग़ौर से देखा जाए तो इस सूटकेस में जगह अधिक है, और रखने को सामान कम।
बाद में मैं कुछ संगीतकारों की संगत में आया। वे ताल में बंदिश (गीत) गाते हैं। ताल का समय-चक्र निर्धारित होता है जैसे बारह मात्रा की ताल या सोलह मात्रा की ताल। बंदिश को इस खाके में यूँ डालना होता है कि बारह मात्रा खत्म होते ही हम अगली पंक्ति पर आ जाएँ, या संगीत की भाषा में कहें तो ‘सम’ पर आ जाएँ। तनिक भी हेर-फेर नहीं। इतना ही नहीं, इसी चक्र में वह वही गीत दो बार, तीन बार, चार बार या छह बार भी गा सकते हैं, जिसे दोगुण, तिगुण, चौगुण या छगुण कहते हैं। यानी एक सूटकेस जो चार डब्बों से भर गया था, उसी में अब आठ, बारह, और सोलह या चौबीस डब्बे भी आसानी से आ गए। ज़ाहिर है गायक ने गति बढ़ा ली।
मैं दिल्ली के इरविन अस्पताल में कार्यरत था, जहाँ मरीजों की भीड़ लगी होती। हम अपने कमरे का दरवाजा कुछ खोल कर रखते कि भीड़ का अंदाज़ा लगता रहे। कभी-कभार दो मरीजों के मध्य एक फौरी मुआयना भी कर आते। अब चाहे पचास मरीज हों, या ढाई सौ, एक ही समय काम शुरू होता और एक ही समय खत्म। न पहले, न बाद में। निर्देश भी यही थे, और विकल्प भी यही था।
1975 के क्रिकेट विश्व कप में पहली बार भारत की टीम एकदिवसीय मैच खेलने गयी। पहला खेल इंग्लैंड से था, और सुनील गावस्कर जब बल्लेबाज़ी करने उतरे तो साठ ओवर तक खेलते ही रह गए। मात्र छत्तीस रन बनाए। उनसे जब बाद में पूछा गया तो उन्होंने कहा, “मुझे समझ ही नहीं आया कि यह खेल खेलना कैसे है? मैं रन बना नहीं पा रहा था, और वे आउट कर नहीं पा रहे थे”। उनके लिए यह अनुभव नया था, क्योंकि टेस्ट मैच में ऐसी कोई समय की पाबंदी नहीं थी। 1987 के अपने आखिरी विश्व कप में उन्होंने इससे कम समय में अपना इकलौता एकदिवसीय शतक बना लिया। अब तो बीसमबीस (टी 20) खेल का युग है, जब लोग तिहाई समय में शतक बना लेते हैं। सदी के महानतम बल्लेबाज़ों में एक सुनील गावस्कर को भी यह ताल बिठाने में वक्त लगा। इसलिए निराश होने की बात नहीं, अगर हम समय का समुचित उपयोग नहीं कर पाते।
आज के समय में इंटरनेट और सोशल मीडिया के बाद सूटकेस में एक नया डब्बा जुड़ गया है, जो पूरी पैकिंग के बाद भी बाहर झाँकता रहता है। ‘स्क्रीनटाइम’ नामक एक नया शब्द जुड़ा है। युवा से लेकर पेंशनधारियों तक का ख़ासा समय इस मद में जा रहा है। चूँकि खबरें, लेख, किताबें, सूचनाएँ आदि इंटरनेट पर द्रुत गति से उपलब्ध होती हैं, इसलिए इससे मुँह भी नहीं मोड़ा जा सकता। स्मार्टफ़ोन के युग में यह आज के विद्यार्थियों के लिए कड़ी चुनौती है कि आखिर समय प्रबंधन कैसे मुमकिन हो।
मेरे विचार से डिज़िटल युग को दोष देने से बेहतर है कि इसे अस्त्र बना लिया जाए। डिज़िटल अध्ययन में एक बात सामने आयी है कि पढ़ने की गति बढ़ गयी है, और ध्यान (अटेंशन स्पैन) घट गया है। यानी आप अगर पाँच मिनट में एक हज़ार शब्दों का लेख (जैसे यह लेख) पढ़ जाते हैं, तो आपके दिमाग में इसका साठ प्रतिशत ही पहुँच पाता है और आप अगले लेख पर पहुँच जाते हैं। ऐसी स्थिति में हमें पढ़ते वक्त कठिन बिन्दु नोट करने होंगे। भाग्य से यह डिज़िटल युग में सुलभ ही होता जा रहा है कि आप लिंक अथवा खास अंश कॉपी कर रख सकते हैं। चूँकि हमने पाँच मिनट में एक बार लेख पढ़ा, सात मिनट में हम दो बार या दस मिनट में तीन बार भी पढ़ सकते हैं। समय-चक्र वही है, आवृत्ति बढ़ गयी। जैसे संगीत का दोगुण, तिगुण, या क्रिकेट का बीसमबीस।
दूसरी बात कि जैसे एक चिकित्सक मरीजों की संख्या का मुआयना करते हैं, जैसे विराट कोहली पिच और दूसरी टीम के स्कोर के हिसाब से अपने खेलने की गति निर्धारित करते हैं, उसी तरह हम जब सुबह आँखें मींचते उठें तो अपने लक्ष्य निर्धारित कर लें। इसके लिए पुरानी तकनीक रही है कि काग़ज पर खाने बना कर विषयों के नाम लिखे जाएँ। यह खाका मन में बन जाए, और उसी हिसाब से अध्ययन के विषय, गति और आवृत्ति निर्धारित की जाए। जीवन में हर सुबह नयी होती है, हर दिन नया होता है, हर आने वाला मिनट नया होता है। लेकिन, लक्ष्य तो निश्चित होता है, जहाँ हमें एक निश्चित समय में पहुँचना है।
[2021 में प्रथम प्रकाशित]
(Copied from facebook)
29.04.2025
Beautiful message
*महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा "मेरी माँ ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ?*
दोर्णाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नही मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था?
परशुराम जी ने मुझे शिक्षा दी साथ ये शाप भी दिया कि मैं अपनी विद्या भूल जाऊंगा क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय समझते थे।
भूलवश एक गौ मेरे तीर के रास्ते मे आकर मर गयी और मुझे गौ वध का शाप मिला?
द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नही समझा गया।
यहां तक कि मेरी माता कुंती ने भी मुझे अपना पुत्र होने का सच अपने दूसरे पुत्रों की रक्षा के लिए स्वीकारा।
मुझे जो कुछ मिला दुर्योधन की दया स्वरूप मिला!
*तो क्या ये गलत है कि मैं दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी रखता हूँ..??*
*श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-*
"कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था। मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी। जिस रात मेरा जन्म हुआ उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा। तुम्हारा बचपन रथों की धमक, घोड़ों की हिनहिनाहट और तीर कमानों के साये में गुज़रा।
मैने गायों को चराया और गोबर को उठाया।
जब मैं चल भी नही पाता था तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले हुए।
कोई सेना नही, कोई शिक्षा नही, कोई गुरुकुल नही, कोई महल नही, मेरे मामा ने मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा।
जब तुम सब अपनी वीरता के लिए अपने गुरु व समाज से प्रशंसा पाते थे उस समय मेरे पास शिक्षा भी नही थी। बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला।
तुम्हे अपनी पसंद की लड़की से विवाह का अवसर मिला मुझे तो वो भी नही मिली जो मेरी आत्मा में बसती थी।
मुझे बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था!
जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रान्त मे समुद्र के किनारे बसाना पड़ा। दुनिया ने मुझे कायर कहा।
यदि दुर्योधन युद्ध जीत जाता तो विजय का श्रेय तुम्हे भी मिलता, लेकिन धर्मराज के युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को मिला! मुझे कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी समझ।
*हे कर्ण!* किसी का भी जीवन चुनोतियों से रहित नही है। सबके जीवन मे सब कुछ ठीक नही होता। कुछ कमियां अगर दुर्योधन में थी तो कुछ युधिष्टर में भी थीं।
सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं!
इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है,
इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारा अपमान होता है,
इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है।
*फ़र्क़ सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार करते हैं..!!*
राधे राधे
29.04.2025
पुराने जमाने की बात है, इंटरनेट था नहीं तो राजा महाराजा लोग एक दूसरे को चैलेंज वगैरह देकर टाइम पास करते थे। ऐसे ही एक दिन एक राजा अपने दरबार में बैठा था कि तभी उसके दरबार में दूसरे राज्य के राजा का भेजा हुआ दूत आया। दूत के साथ एक बकरी, तराजू और ढेर सारा चारा था। दूत ने राजा से कहा कि हमारे राजा ने ये बकरी आपको एक चैलेंज के तौर पर भेजी है, चैलेंज ये है कि आज बकरी का वजन तौला जाएगा, और फिर एक महीने बकरी आपके पास रहेगी, ये जितना चारा है ये एक महीने में इसे खिलाना है, चारा मेरे सामने ही खिलाना है, ताकि कोई चीटिंग न हो, और ठीक एक महीने के बाद हमारे राजा साहब आयेंगे, बकरी का वजन तौला जाएगा, अगर बकरी का वजन एक ग्राम भी ज्यादा हुआ, या चारा बच गया तो आप चैलेंज हार जाएंगे। उस जमाने में चैलेंज मना करने का कांसेप्ट नहीं था, राजा साहब ने चारा देखा तो उसमें दुनिया भर के मेवे मिले हुए थे, राजा समझ गया कि बकरी का वजन तो बढ़ना ही बढ़ना है। परेशान हाल में राजा ने अपने मंत्री को बुलाया, पता नहीं क्यों उस जमाने में मंत्री दरबार में मौजूद नहीं रहते थे, बुलाना पड़ता था, फ्रीलांस मंत्री होते होंगे। खैर, मंत्री आए और बोले ठीक है राजा साहब, बकरी मै रखूंगा एक महीने तक। एक महीने बाद चैलेंज देखने दूसरे राज का राजा आया, पहले चारा देखा गया, सब खत्म था। फिर बकरी को तौला गया, वजन एक ग्राम भी ज्यादा नहीं था। दूसरे राजा ने अपने दूत की तरफ देखा, वो बोला कि चारा तो रोज मेरे सामने ही खिलाया है, बेचारा दूसरे राज्य का राजा मुंह पिटा कर चला गया।
फिर राजा ने मंत्री को बुलाया, पता नहीं क्यों मंत्री फिर दरबार में नहीं था, शायद एक साथ कई राज्य का मंत्री रहा होगा, फ्री लांसर मंत्री, हैंडलिंग मल्टीपल क्लाइंट्स एट ए टाइम। राजा ने पूछा कि मंत्री तुमने ये किया कैसे? मंत्री मुस्कुराया, पता नहीं क्यों उस जमाने में कोई भी बात बोलने से पहले बात से मैच करता एक्सप्रेशन देना जरूरी होता था। खैर मंत्री बोला कि राजा साहब मै बकरी को चारा तो दूत के सामने ही खिलाया था, पर चारा खिलाने के बाद, उससे थोड़ी दूरी पर एक भेड़िया बांध देता था। भेड़िया के गले की रस्सी इतनी लंबी होती थी कि वो बकरी के बिल्कुल करीब उसे घूरता रहे, पर रस्सी इतनी छोटी रहती थी कि भेड़िया बकरी को छू भी न पाए। बस बकरी बेचारी खाती तो भर पेट थी, पर भेड़िया की चिंता में खाना उसको लगता नहीं था। राजा साहब को सुनकर मजा आ गया।
कहानी का सबक ये है कि हम सब अपनी अपनी जिंदगी में बकरी की तरह हो गए है, जो हमे मिल रहा है, जो हमारे पास है, उसका सारा सुख हम अपने ही हाथों इसलिए बर्बाद कर देते है क्योंकि हमें भी कोई न कोई भेड़िया अपने सामने दिख रहा है। कोई डर, कोई चिंता, कोई टेंशन जो अभी मुमकिन नहीं है, हमे भेड़िया दिखता है, उसकी टपकती हुई लार में भीगे दांत दिखते है पर उसके गले में मौजूद रस्सी नहीं दिखती, जिस दिन हम वो रस्सी देख लेंगे, खाने कमाने और जीने का आनंद मिलना शुरू हो जाएगा...
29.04.2025
काफी समय पहले राजा के दरबार में एक विद्वान पंडित रहता था। राजा पंडित की बुद्धिमानी से बहुत प्रभावित था। एक दिन राजा ने भरे दरबार में उस पंडित से पूछा कि आप तो बहुत विद्वान है, लेकिन आपका पुत्र मूर्ख क्यों है?
यह प्रश्न पंडित को बिल्कुल भी समझ में नहीं आया। उसने कहा राजा से उसने कहा कि महाराज आप ऐसा क्यों कह रहे हैं।
राजा ने कहा कि जब मैंने आपके पुत्र से पूछा कि सोने और चांदी में से क्या अधिक मूल्यवान है? तो उसने चांदी को बताया। उसे यह भी नहीं पता कि कौन-सी धातु ज्यादा कीमती है? इसके बाद दरबार के सभी लोग पंडित के ऊपर हंसने लगे। पंडित को बहुत बुरा लगा और वह बिना कुछ बोले ही घर वापस आ गया।
लेकिन जब पंडित घर पहुंचा और उसने अपने बेटे से पूछा कि सोने और चांदी में से क्या मूल्यवान है? तो बेटे ने सोना बताया। फिर पंडित ने अपने बेटे से कहा कि तुम्हें सही उत्तर पता था तो तुमने राजा को गलत जवाब क्यों दिया? पंडित का बेटा पूरी बात समझ गया। उसने अपने पिता से कहा कि राजा रोज सुबह मुख्य बाजार में अपनी प्रजा से मिलने आते हैं, जहां मैं भी जाता हूं। वह रोज मेरे सामने एक सोने का सिक्का और एक चांदी का सिक्का रखते हैं और कहते हैं कि जो मूल्यवान है, तुम उसे उठा लो।
मैं रोज चांदी का सिक्का उठा लेता हूं। सारे लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं। लेकिन मैं सिक्का घर ले आता हूं। पंडित ने अपने बेटे से पूछा कि तुम जानते हो कि सोना अधिक मूल्यवान है, तब भी तुम चांदी का सिक्का क्यों उठाते हो? फिर बेटा अपने पिता को कमरे में लेकर गया और संदूक में चांदी के सिक्के दिखाए। पंडित ने कहा- बेटा इतने सारे सिक्के कहां से आए? बेटे ने बताया कि यह सब सिक्के राजा से मिले हैं।
फिर बेटे ने अपने पिता से कहा कि अगर मैं राजा के सामने से सोने का सिक्का उठाता हूं तो वे मुझे सिक्का देना बंद कर देंगे। सोने के सिक्के के चक्कर में इतने सारे चांदी के सिक्कों का नुकसान करना बुद्धिमानी नहीं है। इसके बाद पंडित अपने बेटे की बुद्धिमानी को मान गया और अपने बेटे के साथ संदूक को लेकर दरबार गया और राजा को पूरी बात से अवगत कराया। राजा ने पंडित के साथ-साथ उसके बेटे की भी प्रशंसा की और उसे सोने के सिक्कों से भरा एक संदूक उपहार दे दिया।
कथा की सीख
हमें अपनी शक्ति का दिखावा करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि कई बार ऐसा करने के चक्कर में हम अपना नुकसान कर लेते हैं। शक्ति का परिचय जरूरत पड़ने पर ही देना चाहिए।
एक बुज़ुर्ग शिक्षिका भीषण गर्मियों के दिन में एक बस में सवार हुई, पैरों के दर्द से बेहाल, लेकिन बस में खाली सीट न देख कर जैसे – तैसे खड़ी हो गई।
कुछ दूरी ही तय की थी बस ने कि एक उम्रदराज औरत ने बड़े सम्मानपूर्वक आवाज़ दी, "आ जाइए मैडम, आप यहाँ बैठ जाएं” कहते हुए उसे अपनी सीट पर बैठा दिया।
खुद वो बेहद साधारण सी औरत बस में खड़ी हो गई।
मैडम ने दुआ दी, "बहुत-बहुत धन्यवाद, मेरी बुरी हालत थी सच में।"
उस महिला के चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान फैल गई।
कुछ देर बाद शिक्षिका के पास वाली सीट खाली हो गई। लेकिन महिला ने एक और महिला को, जो एक छोटे बच्चे के साथ यात्रा कर रही थी और मुश्किल से बच्चे को ले जाने में सक्षम थी, को उस सीट पर बिठा दिया।
अगले पड़ाव पर बच्चे के साथ महिला भी उतर गई, सीट खाली हो गई, लेकिन नेकदिल महिला ने ख़ुद बैठने का लालच नहीं किया ।
उसने फ़िर बस में चढ़े एक कमजोर बूढ़े आदमी को उस सीट पर बैठा दिया जो अभी - अभी बस में चढ़ा था।
कुछ दूर जाने के बाद सीट फिर से खाली हो गई।
बस में अब गिनी – चुनी सवारियां ही रह गईं थीं।
अब उस अध्यापिका ने महिला को अपने पास बिठाया और पूछा, "सीट कितनी बार खाली हुई है लेकिन आप लोगों को ही बैठाते रहे, खुद नहीं बैठे, क्या बात है?"
महिला ने कहा, "मैडम, मैं एक मजदूर हूं औऱ दिनभर खड़ा रह कर मज़दूरी करने से ही मेरा जीवन चलता है।इसके साथ ही मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं कुछ दान पुण्य या दूसरा परोपकार का काम कर सकूं।" तो मैं क्या करती हूं कि कहीं रास्ते से कूड़ा करकट उठाकर एक तरफ कर देती हूं, कभी किसी जरूरतमंद को पानी पिला देती हूं, कभी बस में किसी के लिए सीट छोड़ देती हूं, फिर जब सामने वाला मुझे दुआएं देता है तो मैं अपनी गरीबी भूल जाती हूं । दिन भर की थकान दूर हो जाती है और तो और, जब मैं दोपहर में रोटी खाने के लिए बैठती हूं ना बाहर बेंच पर, तो ये पंछी - चिड़ियां पास आ के बैठ जाते हैं, रोटी डाल देती हूं छोटे-छोटे टुकड़े करके । जब वे खुशी से चिल्लाते हैं, तो उन भगवान के जीवों को देखकर मेरा पेट भर जाता है। पैसा रुपया न सही, सोचती हूं दुआएं तो मिल ही जाती है ना मुफ्त में। फायदा ही है ना और हमने लेकर भी क्या जाना है यहां से ।
शिक्षिका अवाक रह गई, एक अनपढ़ सी दिखने वाली महिला इतना बड़ा पाठ जो पढ़ा गई थी उसे ।
थिसियस का जहाज
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मैंने बहुत समय पश्चात यूट्यूब पर एक फिल्म देखी, 'शिप ऑफ थिसियस'। फिल्म के आरंभ में कुछ पंक्तियां दिखाई जाती हैं। वे पंक्तियां दरअसल एक विचार प्रयोग 'थिसियस का सिद्धांत' हैं। वे पंक्तियां या कहिए कि वह सिद्धांत ऐसा सम्मोहक था, कि मैं लगातार उसमें पूछे गए प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास कर रही हूं...
फिल्म के आरंभ में पूछा जाता है कि एक पानी के जहाज में खराबी आने पर धीरे-धीरे उसके सभी पुर्जे बदल दिए जाते हैं। एक दिन ऐसा आता है कि उसके सारे पुर्जे बदले जा चुके होते हैं। उस जहाज में से जो पुर्जे निकाले गए, उन्हें ठीक करके दूसरे जहाजों में लगा दिया जाता है। अब ओरिजनल जहाज किसको माना जाएगा?, उस जहाज को जिसके सारे पुर्जे बदले जा चुके हैं, या उनमें से किसी एक को जिसमें ओरिजनल जहाज के कुछ पुर्जे लगे हुए हैं।
सत्य यह है कि पुर्जे बदलते ही पहले जैसा ओरिजिनल कोई भी जहाज नहीं बचता, और न ही ऐसी कोई तकनीक है जिससे उसे फिर से पहले जैसा बना दिया जा सके।
मैं सोचती हूं, हमारा जीवन भी उस पानी के जहाज के समान ही तो है, जिसके पुर्जे धीरे-धीरे बदलते रहते हैं, और एक दिन ऐसा आता है कि हमारे सारे पुर्जे बदल चुके होते हैं। हम पहले जैसे ओरिजनल नहीं बचते, और उस समय हमारे पास वापस पुराने पुर्जों पर लौटने का भी कोई विकल्प नहीं बचा होता।
मनुष्य जीवन में कितनी ही प्रकार के पुर्जे हैं। पहला पुर्जा है हमारी देह, जोकि धीरे-धीरे बीमारियों से घिरती चली जाती है। यह वैसी नहीं बचाती जैसी ईश्वर ने देकर भेजी थी। फिर एक दिन ऐसा आता है कि देह रूपी पुर्जा बिल्कुल खराब होकर समाप्त हो जाता है, साथ ही समाप्त हो जाता है उक्त मनुष्य का अस्तित्व।
हमारी आस्था, परिस्थितियां, संबंध, मकान, दुकान, आजीविका नामक पुर्जे भी धीरे-धीरे बदलते चले जाते हैं। बड़े होने पर मनुष्य अपने बचपन के दिनों में माता-पिता से पाए लाड़प्यार, भाई-बहन के साथ रहना, खाना, खेलना, लड़ना-झगड़ना, बचपन के मित्र, भागना, दौड़ना आदि सब याद करता रह जाता है। परंतु, बचपन के उन दिनों में लौटना किसी भी भांति संभव नहीं हो पाता।
मनुष्य जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पुर्जा है मनुष्य के विचार। धीरे-धीरे हमारे सोचने का ढंग परिवर्तित होता चला जाता है। एक समय ऐसा आता है जब हम स्वयं को हृदयहीन पाते हैं। लोगों की बातों का व परिस्थितियों का हम पर असर पड़ना लगभग शून्य हो जाता है। ऐसा समय आने पर कभी-कभी हम सोचते भी हैं कि हम तो बहुत भावुक हुआ करते थे, अब ऐसे कैसे हो गए। परंतु, फिर हमें दूसरे मनुष्यों का हमारे प्रति किया गया बर्ताव दिखने लगता है, और यह तुलनात्मक विचार मन में आते ही हम अपने बदलने का दोष दूसरों पर थोपकर स्वयं को सांत्वना दे लेते हैं।
शिप ऑफ थिसियस बने हम शनै शनै अपने मूल रूप व स्वभाव को परिवर्तित होते देखते रहते हैं, और अंत में 'काश' का बोझ लिए पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं...
ज्यादा कुछ हमारे हाथ में नहीं। परंतु फिर भी, थिसियस का जहाज बनकर पंचतत्व में विलीन होने से पूर्व अपने अंदर थोड़ी सी मनुष्यता बचाकर रखिए। ताकि, अंत में 'काश' का बोझ तनिक कम उठाना पड़े।
#ShipOfTheseus #मनुष्य #मानवता #humanity
✍️ रेखा वशिष्ठ मल्होत्रा
कच्चे आम का स्वभाव खट्टा है...गुड़ का स्वभाव मीठा है...मेथी का स्वभाव कड़वा है...मिर्च का स्वभाव तीखा है...नमक की प्रकृति लवणता है फिर भी अचार ने कितना अच्छा एडजस्टमेंट कर लिया है और सभी को अच्छा लगता है। उसी प्रकार जिंदगी में सबके साथ एवं सभी के स्वभाव के साथ एडजस्टमेंट करना सीख लें तो जीवन मधुर हो सकता है !!!
"पके हुए फल की तीन पहचान होती हैं; एक तो वह नर्म हो जाता हैं, दूसरा वह मीठा हो जाता हैं, तीसरा उसका रंग बदल जाता हैं... इसी तरह से परिपक्व व्यक्ति की भी तीन पहचान होती हैं; पहली उसमें नम्रता होती हैं, दूसरी उसकी वाणी में मिठास होती हैं और तीसरी उसके चेहरे पर आत्मविश्वास का रंग होता हैं।"
आज यूहीं अचानक ही दिल कुछ बेचैन सा हो गया..😢
अभी मैं अपने फोन से कुछ फालतू की Images को Delete कर रहा था तो फोन ने मुझ से पूछा Are You Sure?😢😢
मैं अचरज में पड़ गया कि एक मशीन भी अपने अंदर Store रहे फ़ोटो के रिश्तों को मिटाने के लिए कन्फर्मेशन ले रही है,
तो इस मशीन को चलाने वाला इंसान आखिर इतना लापरवाह कैसे हुआ? जो रिश्तों को तोड़ने या संबंधों से मुँह फेरने से पहले उस का दिल एक बार भी नहीं पूछता कि Are You Sure??😢😢😢😢😢
मै कुछ देर के लिए सोच में पड़ गया ... की आज कल हर इन्सान अपने मतलब के लिए रोज नए रिश्ते बनाता ओर पुराने रिश्तों को भूल जाता है ... क्या कोई अहमियत नहीं होती उसकी जिंदगी में उन पुराने रिश्तों की...
क्या आपको नहीं लगता कि उन रिस्तों को मिटाने से पहले एक बार खुद से पूछना चाहिए ... कि... Are You Sure...???😢😢😢
कि शायद उस इंसान के हाथों द्वारा बनाई हुई एक छोटी सी मशीन जज्बातों में इंसान से आगे निकल गई...
कोई भी रिश्ता तोड़ने के पहले एक बार जरूर खुद से पूछें... कि... Are You Sure....???...😢😢😢❤️❤️
हर बड़ा पेड़, जरूरी नही फल भी दे, सिर्फ छाया भी बहुत सुकून देती है, बड़ो का सम्मान करे। भविष्य में ऐसा करने से आप भी सम्मान पायेंगे। अंत में सभी जीवन फलदार हो, संभव नहीं, परंतु आप छायादार हो, यह आप पर निर्भर हैं।
फलों की बड़ी सूची बनाई जा सकती हैं, लेकिन छाया के विषय में यह परेशानी नहीं होगी। वह केवल कम या ज्यादा तक सीमित होगी। प्रत्येक जीवन का कर्तव्य है की वह आने वाले सभी नये जीवन के लिये मिसाल हो, प्रेरणा बने।
सुबह को एक घण्टा अपने लिए ज़रूर निकालें
घर की छत पर बैठें,
लोगों के मकान देखें,
आसमान में उड़ते परिंदे देखें,
कॉफी या चाय का कप
दोनों हाथ से पकड़ कर हरारत (गर्मी) महसूस करें
अपने लिए वक़्त निकालें,
अपने आपको अना (Ego) से हटा कर अहमियत दें,
ज़िन्दगी की कड़वाहटों को चाय की चुस्कियों के साथ खत्म करें,
और अगर फिर भी सुकून ना मिले
तो उस खाली कप को देखें,
जिस तरह उस कप में दोबारा चाय भरने की गुंजाइश (जगह) है |
इसी तरह आपके अंदर भी ज़िन्दगी और ख़ुशी भरने की गुंजाइश बाकी है,
कोई क्या करता है,
क्या कहता है
इन सब बातों से दूर हो कर
सिर्फ़ अपने आपको देखें,
अपने अंदर की खाली जगहों को भरना सीखें |
खुद को भी कभी महसूस कर लिया करें,
कुछ रौनकें खुद से भी हुआ करती हैं..!
(Copied)
॥महकता परिवार॥
🌸ॐ नमो नारायणाय 🌸
“अरे वाह,सुमंत! तेरा टिफिन तो बहुत सुंदर है। खोल तो सही।” सारे बच्चे उसे घेर कर खड़े हो गए थे।
सुमंत ने शान से टिफिन खोला।
“ये टिफिन रजत भइया का है,” सुमित ने सब दोस्तों को बताया। अन्दर आलू पराँठा रोल और टमाटर की चटनी थी, टिश्यू पेपर के साथ।
“आज मम्मी का जन्मदिन है, इसलिए नई चाची ने हम सब बच्चों के टिफिन पैक किए हैं,” ये कहकर, उसने थोड़ा-थोड़ा पराँठा रोल, अपने दोस्तों को खिला दिया।
फिर, उसने दूसरे डिब्बे से मिठाई निकाल कर बाँट दी।
एक बच्चे ने पूछा, “पर तेरी चाची तो नौकरी करती हैं ना?”
“हाँ, पर आज उनकी छुट्टी थी। हम सब बच्चे भी चाची का टिफिन साथ तैयार कराते हैं। मेरी और भैया की पानी भरने की ड्यूटी लगती है पर घर में किसी का जन्मदिन हो तो ... मतलब दादी, मम्मी ताई जी, या चाची का तो उस दिन बाकी सब खाना बनाते हैं। विशेष दिन वालों की छुट्टी होती है,” सुमित ने पर्दा उठाया।
“हमारे घर में सब बारी-बारी से काम करते हैं। हम सभी भाई-बहनों को नाश्ते, खाने में तमाम चीजें मिल जाती है। संयुक्त परिवार है ना ! हम पढ़ाई भी ऐसे ही करते हैं।”
बाकी बच्चे, अपने-अपने टिफिन का 'ब्रेड जैम और बटर' देख कर थोड़े मायूस से हो गये थे।
सुमंत फिर से चहका, “और एक बात। हम बच्चों की भी ड्युटी लगती है - रात के खाने में, टेबल पर खाना लगाने, बर्तन रखने से लेकर सामान वापिस रखवाने की। बड़ा अच्छा लगता है। फिर थोड़ी देर की सैर - दादा, दादी का हाथ पकड़ कर। तभी तो उन्हें भी थोड़ा आराम मिलता है!
परसों, दादा जी का जन्म दिवस है, हलवा-पूरी लाऊँगा।”
बाकी बच्चे, उसकी बातों को सुनकर, अभी संयुक्त और एकल परिवार में उलझे थे। सबके मन में एक उधेड़बुन यही थी - गाँव से दादा-दादी को घर लाने के लिये मनाने की।
🍁 दुआओं की दीवाली 🍁
एक दिन एक महिला ने अपनी किचन से सभी पुराने बर्तन निकाले। पुराने डिब्बे, प्लास्टिक के डिब्बे,पुराने डोंगे,कटोरियां,प्याले और थालियां आदि। सब कुछ काफी पुराना हो चुका था।
फिर सभी पुराने बर्तन उसने एक कोने में रख दिए और बाजार से नए लाए हुए बर्तन करीने से रखकर सजा दिए।
बड़ा ही पॉश लग रहा था अब उसका किचन। फिर वो सोचने लगी कि अब ये पुराना सामान भंगारवाले को दे दिया जाए तो समझो हो गया काम ,साथ ही सिरदर्द भी ख़तम औऱ सफाई का सफाई भी हो जाएगी ।
इतने में उस महिला की कामवाली आ गई। दुपट्टा खोंसकर वो फर्श साफ करने ही वाली थी कि उसकी नजर कोने में पड़े हुए पुराने बर्तनों पर गई और बोली- बाप रे! मैडम आज इतने सारे बर्तन घिसने होंगे क्या? और फिर उसका चेहरा जरा तनावग्रस्त हो गया।
महिला बोली-अरी नहीं!ये सब तो भंगारवाले को देने हैं...सब बेकार हैं मेरे लिए ।
कामवाली ने जब ये सुना तो उसकी आंखें एक आशा से चमक उठीं और फिर चहक कर बोली- मैडम! अगर आपको ऐतराज ना हो तो ये एक पतीला मैं ले लूं?(साथ ही साथ उसकी आंखों के सामने उसके घर में पड़ा हुआ उसका इकलौता टूटा पतीला नजर आ रहा था)
महिला बोली- अरी एक क्यों! जितने भी उस कोने में रखे हैं, तू वो सब कुछ ले जा अगर तेरे काम के हैं तो । मेरा उतना ही सिरदर्द कम होगा।
कामवाली की आंखें फैल गईं- क्या! सब कुछ?
उसे तो जैसे आज अलीबाबा की गुफा ही मिल गई थी।
फिर उसने अपना काम फटाफट खतम किया और सभी पतीले, डिब्बे और प्याले वगैरह सब कुछ थैले में भर लिए और बड़े ही उत्साह से अपने घर के ओर निकली।
आज तो जैसे उसे चार पांव लग गए थे। घर आते ही उसने पानी भी नहीं पिया और सबसे पहले अपना जूना पुराना और टूटने की कगार पर आया हुआ पतीला और टेढ़ा मेढ़ा चमचा वगैरह सब कुछ एक कोने में जमा किया, और फिर अभी लाया हुआ खजाना (बर्तन) ठीक से जमा दिया।
आज उसके एक कमरेवाला किचन का कोना पॉश दिख रहा था।
तभी उसकी नजर अपने पुराने बर्तनों पर पड़ी और फिर खुद से ही बुदबुदाई- अब ये सामान भंगारवाले को दे दिया कि समझो हो गया काम।
तभी दरवाजे पर एक भिखारी पानी मांगता हुआ हाथों की अंजुल करके खड़ा था- मां! पानी दे।
कामवाली उसके हाथों की अंजुल में पानी देने ही जा रही थी कि उसे अपना पुराना पतीला नजर आ गया और फिर उसने वो पतीला भरकर पानी भिखारी को दे दिया।
जब पानी पीकर और तृप्त होकर वो भिखारी बर्तन वापिस करने लगा तो कामवाली बोली- फेंक दो कहीं भी।
वो भिखारी बोला- तुम्हें नहीं चाहिए? क्या मैं रख लूं मेरे पास?
कामवाली बोली- रख लो, और ये बाकी बचे हुए बर्तन भी ले जाओ और फिर उसने जो-जो भी भंगार समझा वो उस भिखारी के झोले में डाल दिया।
वो भिखारी खुश हो गया।
पानी पीने को पतीला और किसी ने खाने को कुछ दिया तो चावल, सब्जी और दाल आदि लेने के लिए अलग-अलग छोटे-बड़े बर्तन, और कभी मन हुआ कि चम्मच से खाये तो एक टेढ़ा मेढ़ा चम्मच भी था।
आज उसकी फटी झोली पॉश दिख रही थी
.........
सुख किसमें माने, ये हर किसी की परिस्थिति पर अवलंबित होता है।
हमें हमेशा अपने से छोटे को देखकर खुश होना चाहिए कि हमारी स्थिति इससे तो अच्छी है। जबकि हम हमेशा अपनों से बड़ों को देखकर दुखी ही होते हैं और यही हमारे दुख का सबसे बड़ा कारण होता है।
हमेशा जरूरतमंद को देने की आदत डालने से एक चेन बनती जाती है । अगर हम चेन मार्केटिंग के कॉन्सेप्ट को हमेशा ध्यान में रखें तो चेन के अंतिम लाभार्थी की दुआ ,पहले दानदाता को मिलती है ।
दीपावली की सफाई शुरू हो गई है,
हमारी शुभकामनाएं हैं आपका घर नये क्रॉकरी, कपड़े, फ़र्नीचर से जगमग हो ,पुराने का क्या करना है आप बहुत बेहतर जानते हैं!
बस आपकी झोली हमेशा दुआओं से भरे, यही ईश्वर से प्रार्थना है !
!! हे परमेश्वर!!
कोई आवेदन नहीं किया था,
किसी की सिफारिश नहीं थी,
फिर भी यह
स्वस्थ शरीर प्राप्त हुआ।
सिर से लेकर पैर के अंगूठे तक
हर क्षण
रक्त प्रवाह हो रहा है....
न जाने कौनसा यंत्र लगाया है
कि निरंतर
हृदय धड़कता है...
हजार-हजार मेगापिक्सल वाले
दो-दो कैमरे के रूप में 2 आँखें संसार के दृश्य कैद कर रही हैं।
दस-दस हजार टेस्ट करने वाली
जीभ
सेंकड़ो संवेदनाओं का अनुभव कराने वाली त्वचा नाम की
सेंसर प्रणाली
अलग-अलग फ्रीक्वेंसी की आवाज पैदा करने वाली
स्वर प्रणाली
उन फ्रीक्वेंसी का कोडिंग-डीकोडिंग करने वाले
कान नाम का यंत्र इस शरीर की विशेषता हैं।
पचहत्तर प्रतिशत जल से भरा शरीर
लाखों रोमकूप होने के बावजूद कहीं भी लीक नहीं होता...
बिना किसी सहारे मैं
सीधा खड़ा रह सकता हूँ।.
गाड़ी के टायर चलने पर घिसते हैं, पर
पैर के तलवे जीवन भर चलने के बाद आज तक नहीं घिसे
अद्भुत ऐसी रचना है।
हे परमात्मा आप ही इसके संचालक हैं। आप हीं निर्माता।
स्मृति, शक्ति, शांति ये सब भगवान आप देते हैं।
प ही भीतर बैठ कर
शरीर की संरचना चला रहे हैं।
अद्भुत है यह सब,
अविश्वसनीय।
ऐसे शरीर रूपी मशीन में हमेशा आप ही हैं,
इसका अनुभव कराने वाली आत्मा भगवान आप हैं।
यह आपका खेल मात्र है। मैं आपके खेल का निश्छल,
निस्वार्थ आनंद का हिस्सा रहूँ!...
ऐसी सद्बुद्धि मुझे दीजिए!!
आप ही यह सब संभालते हैं
इसका अनुभव मुझे हमेशा रहे!!!
प्रतिदिन पल-पल
कृतज्ञता से आपका ऋणी होने का स्मरण,
चिंतन हो,
यही परमेश्वर के चरणों में प्रार्थना है।🙏 जय श्री राम 🙏